Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

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Page 214
________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छठाव्रत गमन आगमन हेतु रखू, सभी दिशाओं का मैं ध्यान। पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण, ऊर्ध्व अधो दिशा परिमाण।। जितनी रखी है मर्यादा, और अधिक न करूं प्रयाण। यदि भूल से अतिक्रमण हो, करुं शीघ्र मैं उसका निदान।। सातवां व्रत अशन पान मर्दन शयन हित, जिस वस्तु का करुं उपभोग। उन सबकी मैं करूं मर्यादा, रखू सदा ही मैं उपयोग।। मर्यादा का भंग करूं नहीं, करके अनुचित मौज व शौक। 15 कर्मादान त्याग कर, सर्वकर्म का करुं वियोग।। आठवां व्रत बिना प्रयोजन करुं न हिंसा, नहीं स्वार्थ का हो पोषण। नहीं प्रमाद का करूं मैं सेवन, नहीं किसी का हो शोषण।। अनर्गल भाषा अंग चेष्टा, नहीं करूं मैं दुश्चिंतन। सदा शुद्ध भावना रखू, धुल जाएं सब ही दूषण।। नौंवा व्रत करूं प्रतिदिन शुद्ध सामायिक, गृह कार्य से निवृत्त हो। पाप. आश्रव छोड़ आत्मा, संवर में ही संवृत हो।। अशुभ कार्य न करूं कराऊं, जिससे कहीं अनादृत हों। मन वच काय शुद्ध योग से, आतम शक्ति अनावृत हो।। दशवां व्रत करी दिशा की जो मर्यादा, उसमें प्रतिदिन की सीमा। प्रातः उठकर करूं सदा ही, सदा बढ़ाऊं गुण गरिमा।। चौदह नियम सदा चितारूं, भारी है जिनकी महिमा।। लोक और परलोक सुधारू, कराऊ मुक्ति की बीमा।। ग्यारहवां व्रत अष्टमी पक्खी करूं मैं पौषध, तप से आत्म श्रृंगार करूं। दोष रहित कर तपाराधना, कर्मों का संहार करूं।। तीन मनोरथ का करूं चिंतन, नव तत्वों पर विचार करूं। स्वभाव रमण करके मैं निशदिन, मोक्ष पुरी में विहार करूं।। बारहवां व्रत शुद्ध संयमी साधु साध्वी, का जब घर दर्शन पाऊं। हर्षित होकर दोष रहित मैं, उनको गोचरी बहराऊं।। शुद्ध भाव से अप्रमत्त हो, मैं कुछ सेवा कर पाऊं। पंच महाव्रती की सेवा कर, मैं भी मुक्ति पद पाऊं।। Jigoo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 50000000000000000000000 do0000000000000000000000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/211 0000000000ooooobi Jain Education International 100000000000 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only

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