Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

View full book text
Previous | Next

Page 212
________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g DOOK 0000000000000000000000000000000 agoo000000000000000000000000000000000000000000000000000 प्राणी मात्र सब सुख से जीएं, कभी न कोई दुख पावे। ऋद्धि सिद्धि घर घर में होवे, यही भावना नित भावे।। नहीं किसी को भी मैं दुख दूं, कोई न मुझसे भय खावे। क्षीर नीर सम मैत्री भाव हो, नेह नीर में सब न्हावें।।४।। कदाचार के पथ को छोडूं, सदाचार पथ अपनावे। शुद्ध शील की करूं पालना, ऐसी दृढ़ता मन आवे।। पर धन वनिता पर न लुभाऊं, 'स्व' पर न अभिमान करूँ। न्याय नीति की करुं कमाई, सदा आत्महित ध्यान धरूँ।।५।। आर्तध्यान और रौद्र ध्यान में, मन मलीन न हो पावें। धर्म ध्यान करूणा मैत्री में, सारा समय गुजर जावें।। रोम रोम हो हर्षित मेरा, जब कोई गुणवान मिले। मैं समझं भगवान मिले, जब सद्कर्मी इन्सान मिले।।६।। धन्य दिवस वह मेरा होगा, जब 'परिग्रह' का त्याग करूं। गृहस्थवास को तज कर होऊँ, मुंडित मन वैराग्य धरूं।। धन्य धन्य वह दिन होगा, जब अंत समय संलेखना हो। खाना पीना सब कुछ तजकर, समाधि भाव में मरणा हो।७।। मृत्यु से नहीं भय हो मुझको, जीवन की नहीं आशा हो। चाहे लक्ष्मी आवे जावे, मन में नहीं निराशा हो।। धर्माराधन की ही निशदिन, मझको लगी पिपासा हो। आगम ज्ञान सीखने की ही, एक मात्र जिज्ञासा हो।।८।। नहीं कभी भी क्रोध करूं मैं, क्षमा स्त्रोत मन बहा करे। अभिमान नहीं रखू मन में, सरल नम्र बन रहा करें।। मधुर मधु से प्रिय वचन ही, मेरा मुख ये कहा करे। प्रेम शांति समभाव धार कर, कटु वचन भी सहा करे।।६।। शुद्धाचार विचार रहे नित, शुद्धाचार व्यवहार रहे। गुरुजनों के प्रति हृदय में, श्रद्धाभाव सत्कार रहे।। मात-पिता अतिथि संत की, सेवा का नित भाव रहे। महामंत्र नवकार जाप का, सबके मन में चाव रहे।।१०।। महामंत्र नवकार ये प्यारा, चौदह पूर्व का है सार / वीतराग की वाणी है ये, श्रद्धा से धारो नर नार।। शुद्ध भाव से जो भी प्राणी, जपता इसको बारम्बार / जपते-जपते भव सागर से, हो जाएगा बेड़ा पार।।११।। 00000000000000 >0000000000000000000000000000000000000000000000ool निर्ग्रन्थ प्रवचन/209 000000000000000ood Jain Education International For Personal & Private Use Only 500000000000000 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 210 211 212 213 214 215 216