Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

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Page 206
________________ 500000000000000000000000000000000000000000000r OOOOOOOC gooo0000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ood देख लेता है। फिर (अमोहणे) मोह रहित और (अणासवे) आश्रव रहित (होइ) होता है। (झाणसमाहिजुत्ते) शुक्ल ध्यान रूप समाधि से युक्त होने पर वह (आउक्खए) आयुष्य क्षय होने पर (सुद्ध) निर्मल (मोक्खं) मोक्ष को (उवेइ) प्राप्त होता है। भावार्थ : हे गौतम! शुक्ल ध्यान रूप समाधि से युक्त होने पर वह जीव मोह और अन्तराय रहित हो जाता है तथा वह सर्व लोक को जान लेता है और देख लेता है। अर्थात् शुक्ल ध्यान के द्वारा जीव चार घनघातियाँ कर्मों का नाश करके इन चार गुणों को पाता है। तदनन्तर आयु आदि चार अघातिया कर्मों का नाश हो जाने पर वह निर्मल मोक्ष स्थान को पा लेता है। मूल: सुक्कमूले जहा रुक्खे, सिच्चमाणे ण रोहति। एवं कम्माण रोहति, मोहणिज्जे खयंगए||३|| छायाः शुष्कमूलो यथा वृक्षः, सिञ्चमानो न रोहति। एवं कर्माणि न रोहन्ति, मोहनीये क्षयंगते।।२३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (सुक्क मूले) सूख गया है मूल जिसका ऐसा (रुक्खे), वृक्ष, (सिच्चमाणे) सींचने पर (ण) नहीं (रोहति) लहलहाता है (एवं) उसी प्रकार (मोहणिज्जे) मोहनीय कर्म (खयंगए) क्षय हो जाने पर पुनः (कम्मा) कर्म (ण) नहीं (रोहति) उत्पन्न होता है। भावार्थ : हे गौतम! जिस वृक्ष की जड़ सूख गई हो उसे पानी से सींचने पर भी वह लहलहाता नहीं है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर पुनः कर्म उत्पन्न नहीं होते हैं क्योंकि, जब कारण ही नष्ट हो गया तो कार्य कैसे हो सकता है? मूल : जहा ददाणंबीयाणं, ण जायंति पुणंकुरा। .. कम्म बीएसु दड्ढेसु, न जायंति भवंकुरा||२४|| छायाः यथा दग्धानामंकुराणाम्, न जायन्ते पुनरंकुराः। कर्म बीजेषु दग्धेषु, न जायन्ते भवांकुराः / / 24 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (दद्धाणं) दग्ध (बीयाणं) बीजों के (पुणंकुरा) फिर अंकुर (ण) नहीं (जायंति) उत्पन्न होते है। उसी प्रकार (दड्ढेसु) दग्ध (कम्मबीएसु) कर्म बीजों में से (भवंकुरा) भव रूपी अंकुर (न) नहीं (जायंति) उत्पन्न होते हैं। 0000000000000000ooot निर्ग्रन्थ प्रवचन/203 JameRE D0000000000oobi For Personal & Private Use One 00000000 One Orary.org

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