Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

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Page 204
________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 10000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000064 छाया : निर्वाणमित्यबाधमिति, सिद्धार्लोकाग्रमेव च। क्षेमं शिवमनाबाधं, यच्चरन्ति महर्षयः / / 18 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! वह स्थान (निव्वाणंति) निर्वाण (अबाहं ति) अबाध (सिद्धी) सिद्धि (य) और (एव) ऐसे ही (लोगग्गं) लोकाग्र (खेम) क्षेम (सिव) शिव (अणाबाह) अनाबाध, इन शब्दों से भी पुकारा जाता है। ऐसे (ज) उस स्थान को (महेसिणो) महर्षि लोग (चरंति) जाते हैं। ___ भावार्थ : हे गौतम! इस स्थान को निर्वाण भी कहते हैं, क्योंकि वहाँ आत्मा के सर्व प्रकार के संतापों का एकदम अभाव रहता है। अबाधा भी उसी स्थान का नाम है, क्योंकि वहां आत्मा को किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होती है। उसको सिद्धि भी कहते हैं, क्योंकि आत्मा ने अपना इच्छित कार्य सिद्ध कर लिया है और लोक के अग्र भाग पर होने से लोकाग्र भी उसी स्थान को कहते हैं। फिर उसका नाम क्षोम भी है, क्योंकि वहां आत्मा को शाश्वत सुख मिलता है। उसी को शिव भी कहते हैं, क्योंकि आत्मा निरुपद्रव होकर सुख भोगती रहती है। इसी तरह उसको अनाबाध भी कहते हैं क्योंकि वहाँ गयी हुई आत्मा स्वाभाविक सुखों का उपभोग करती रहती है, किसी भी तरह की बाधा उसे वहाँ नहीं होती। इस प्रकार के उस स्थान को संयमी जीवन के बिताने वाली आत्माएँ शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त करती हैं। मूल: नाणं च दंसणंचेव, चरित्वं च तवो वहा। एयं मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छंति सोग्गइं||१९|| छाया: ज्ञानं च दर्शनं चैव, चरित्रं च तपस्तथा। एतन्मार्गमनुप्राप्ताः, जीवा गच्छन्ति सुगतिम्।।१६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (नाणं) ज्ञान (च) और (दसणं) श्रद्धान (चेव) और इसी तरह (चरित्त) चारित्र (च) और (तहा) वैसे ही (तवो) तप (एयं) इन चार प्रकार के (मग्गं) मार्ग को (अणुप्पत्ता) प्राप्त होने पर (जीवा) जीव (सोग्गइं) मुक्ति गति को (गच्छंति) प्राप्त होते हैं। भावार्थ : हे गौतम! इस प्रकार के मोक्ष स्थान में वही जीव पहुंच पाता है, जिसे सम्यक् ज्ञान है, वीतरागों के वचनों पर जिसे श्रद्धा है, जो चारित्रवान है और तप में जिसकी प्रवृत्ति है। इस तरह इन चारों मार्गों को यथा विधि जो पालन करता रहता है। फिर उसके लिए मुक्ति कुछ भी दूर नहीं है। क्योंकि : 090000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/2011 00000000000000 500000000000000ooth Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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