Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

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Page 203
________________ 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Mdoo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000d प्रकार यह पृथ्वी सभी प्राणियों को आश्रय रूप है, ऐसे ही विनयशील मानव भी सदाचार रूप अनुष्ठान का आश्रय है। मूलः स देवगंधव्वमणुस्सपूइए, चइवु देहं मलपंकपुव्वयं सिद्धे वा हवइ सासए, देवे वा अप्परए महिड्डिए||१६|| छायाः स देवगन्धर्व मनुष्य पूजितः, त्यक्त्वा देहं मलपंक पूर्वकम् / __सिद्धो भवति शाश्वतः, देवो वापि महर्द्धिकः / / 16 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (देवगंधव्वमणुस्सपूइए) देव, गंधर्व और मनुष्य से पूजित (स) वह विनयशील मनुष्य (मलपंकपुव्वयं) रुधिर और वीर्य से बनने वाले (देह) मानव शरीर को (चइत्तु) छोड़ करके (सासए) शाश्वत (सिद्धे वा) सिद्ध (हवइ) होता है (वा) अथवा (अप्परए) अल्प कर्म वाला (महिड्ढिए) महा ऋद्धिवंत (देवे) देवता होता है। भावार्थ : हे गौतम! देव, गंधर्व और मनुष्यों के द्वारा पूजित ऐसा वह विनीत मनुष्य रुधिर और वीर्य से बने हुए इस शरीर को छोड़कर शाश्वत सुखों को सम्पादन कर लेता है अथवा अल्प कर्म वाले महा ऋद्धिवंत देवों की श्रेणी में जन्म धारण करता है। ऐसा ज्ञानीजनों ने कहा है। मूल: अत्यि एगंधुवं ठाणं, लोगग्गम्मि दुरारुह। जत्थ नत्यि जरा मच्चू, वाहिणो वेयणा तहा||१७|| छायाः अस्त्येकं ध्रुवं स्थानं, लोकाग्रे दुरारोहम्। यत्र नास्ति जरामृत्यु, व्याधयो वेदनास्तथा।।१७।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (लोगग्गम्मि) लोक के अग्र भाग पर (दुरारुह) कठिनता से चढ़ सके ऐसा (एग) एक (धुवं) निश्चल (ठाणं) स्थान (अत्थि) है। (जत्थ) जहां पर (जरामच्चू) जरामृत्यु (वाहिणो) व्याधियों (तहा) तथा (वयणा) वेदना (नत्थि) नहीं है। भावार्थ : हे गौतम! कठिनता से चढ़ा जा सके, पा सके ऐसा एक निश्चल स्थान, लोक के अग्र भाग पर है। जहाँ पर न वृद्धावस्था का दुख है और न व्याधियों ही की लेन-देन है तथा शारीरिक व मानसिक वेदनाओं का भी वहां नाम नहीं है। मूल: निब्वाणं ति अबाहं ति, सिद्धी लोगग्गमेव या खेमं सिवमणा बाह, जंचरंति महेसिणो||१८ go00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 Poooo00000000000 4निर्ग्रन्थ प्रवचन/2003 300000000000000 Jain Education International 0000000000000000 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only

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