Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

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Page 166
________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooge Vdo000000000000000000000000000000000000000000000000 छायाः यथा महातडागस्य, सन्निरुद्ध जलागमे। उत्सिंचनेन तपनेन, क्रमेण शोषणा भवेत्।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (महातलागस्स) बड़े भारी एक तालाब के (जलागमे) जल के आने के मार्ग को (सन्निरुद्धे) रोक देने पर, फिर उसमें का रहा हुआ पानी (उस्सिंचणाए) उलीचने से तथा (तवणाए) सूर्य के आतप से (कमेणं) क्रमशः (सोसणा) उसका शोषण (भवे) होता है। भावार्थ : हे आर्य! जिस प्रकार एक बड़े भारी तालाब के जल आने के मार्ग को रोक देने पर नवीन जल उस तालाब में नहीं आ सकता है। फिर उस तालाब में रहे हुए जल को किसी प्रकार उलीच कर बाहर निकाल देने से अथवा सूर्य के आतप से क्रमशः वह सरोवर सूख जाता है। अर्थात् फिर उस तालाब में पानी नहीं रह सकता है। मूल: एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे। भवकोडिसंचियं कम्म, तवसा निजरिज्जह||0|| छायाः एवं तु संयतस्यापि, पापकर्मनिराश्रवे। भवकोटिसञ्चितं कर्म, तपसा निर्जीर्यते।।१०।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (एवं) इस प्रकार (पावकम्मनिरासवे) जिसके नवीन पाप कर्मों का आना रुक गया है, ऐसे (संजयस्सावि) संयमी जीवन बिताने वाले के (भवकोडिसंचियं) करोड़ों भवों के पूर्वोपार्जित (कम्म) कर्म (तवसा) तप द्वारा (निज्जरिज्जह) क्षय हो जाते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जैसे तालाब में नवीन आते हुए पानी को रोक कर पहले के पानी को उलीचने से तथा आतप से उसका शोषण हो जाता है। इसी तरह संयमी जीवन बिताने वाला यह जीव भी हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और ममत्व के द्वारा आते हुए पाप को रोककर, जो करोडों भवों में पहले संचित किये हुए कर्म हैं उनको तपस्या द्वारा क्षय कर लेता है। तात्पर्य यह कि आगत कर्मों का संवर और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा ही कर्मक्षय-मोक्ष का कारण है। मूल: सोतवो दुविहो वुत्तो, बाहिरभितरो वहा। बाहिरो छबिहो वुत्तो, एवमभितरो तवो||१|| छायाः तत्तपो द्विविधमुक्तं, बाह्यमाभ्यन्तरं तथा। बाह्यं षड्विधमुक्तं, एवमाभ्यन्तरं तपः।।११।। gooo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000 Dooooooooooooc 5000000000000000000000 100000000000000 - निर्ग्रन्थ प्रवचन/163 000000000000000000 Education International For Personal & Private Use Only Coooo00000000000006 www.jainelibrary.org

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