Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

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Page 187
________________ goooooooo000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000006 के जीवों की (न) नहीं (हिंसए) हिंसा करें (लोयस्स) कर्म रूप लोक को (बुज्झिज्ज) जानकर (वसं) उसकी आधीनता में (न) नहीं (गच्छे) जावे। ____ भावार्थ : हे गौतम! जिसने सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया है और ममत्व से विमुख हो रहा है ऐसा बुद्धिमान तो इस प्रकार के नारकीय दुखों को एक मात्र सुनकर किसी भी प्रकार की कोई हिंसा नहीं करेगा। यही नहीं वह क्रोध, मान, माया, लोभ तथा अहंकार रूप लोक के स्वरूप को समझकर और उसके आधीन होकर कभी भी कर्मों के बन्धनों को प्राप्त न करेगा। वह स्वर्ग में जाकर देवता होगा। देवता चार प्रकार के हैं। वे यों हैं:मूल : देवा चउबिहा वुत्ता, ते मे कित्तयओ सुण। . भोमेज्ज वामन्तर, जोइस वेमाणिया तहा||१४|| छायाः देवाश्चतुर्विधा उक्ताः, तान्मे कीर्तयतः श्रृणु। भौमेया व्यन्तराः, ज्योतिष्का वैमानिकास्तथा।।१४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (देवा) देवता (चउव्विहा) चार प्रकार के (वुत्ता) कहे हैं। (ते) वे (मे) मेरे द्वारा (कित्तयओ) कहे हुए तू (सुण) श्रवण कर (भोमेज्ज वाणणियां) ज्योतिषी और वैमानिक देव। भावार्थ : हे गौतम! देव चार प्रकार के होते हैं। उन्हें तू सुन / (1) भवनपति (2) वाणव्यन्तर (3) ज्योतिषी और (4) वैमानिक / भवनपति इस पृथ्वी से 100 योजन नीचे की ओर रहते हैं। वाणव्यन्तर 10 योजन नीचे रहते हैं। ज्योतिषी देव 760 योजन इस पृथ्वी से ऊपर की ओर रहते हैं। परन्तु वैमानिक देव तो इन ज्योतिषी देवों से भी असंख्य योजन ऊपर रहते हैं। मूल: दसहा उ भवणवासी, अट्टहा वणचारिणो। म पंचविहा जोइसिया; दुविहा वेमाणिया तहा||१५|| छायाः दशधा तु भवनवासिनः, अष्टधा वन चारिणः। पञ्चविधा ज्योतिष्काः, द्विविधा वैमानिकास्तथा।।१५।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (भवणवासी) भवनपति देव (दसहा) दस प्रकार के होते हैं और (वणचारिणो) वाणव्यन्तर (अट्ठहा) आठ प्रकार के हैं। (जोइसिया) ज्योतिषी (पंचविहा) पांच प्रकार के होते हैं। (तहा) वैसे ही (वैमाणिया) वैमानिक (दुविहा) दो प्रकार के हैं। odiooo0000000000000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000000000000000000ooooot निर्ग्रन्थ प्रवचन/184 Jain EdLOTondobooveicboo00000000 Soooooo000000000Ccorarytorg

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