Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

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Page 186
________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 B0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 है जिसमें ऐसे नारकीय (भव) जन्म को (अज्जणित्ता) उपार्जन करके (दुक्खी) वे दुखी जीव (तं) उस (अणंतदुक्खं) अपार दुख को (वेदंति) भोगते हैं। _ भावार्थ : हे गौतम! इस आत्मा ने जैसे पुण्य पाप किये हैं, उसी के अनुसार जन्म जन्मान्तर रूप इस संसार में उसे सुख-दुख मिलते रहते हैं। यदि उनसे विशेष पाप किये हैं तो जहाँ घोर कष्ट होते हैं, ऐसे नारकीय जन्म उपार्जन करके वह उस नरक में जा पड़ती है और अनंत दुःखों को सहती रहती है। मूल : जे पावकम्मेहि धणं मणुस्सा, समाययंती अमइं गहाय| ___पहाय ते पासपयट्ठिए नरे, वेराणुबद्धा नरयं उविंति||१२|| छायाः ये पापकर्म भिर्धनं मनुष्याः, समार्जयन्ति अमतिं गृहीत्वा। प्रदाय ते पाशप्रवृत्ताः नराः, वैरानुबद्धा नरकमुपयान्ति।।१२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जे) जो (मणुस्सा) मनुष्य (अमइं) कुमति को (गहाय) ग्रहण करके (पावकम्मेहि) पापकर्म के द्वारा (धणं) धन को (समाययंती) उपार्जन करते हैं, (ते) वे (नरे) मनुष्य (पासपयट्ठिए) कुटुम्बियों के मोह में फंसे हुए होते हैं, वे (पहाय) उन्हें छोड़कर (वराणुबद्धा) पाप के अनुबंध करने वाले (नरयं) नरक में जाकर (उविंति) उत्पन्न होते हैं। भावार्थ : हे गौतम! जो मनुष्य पाप बुद्धि से कुटुम्बियों के भरण पोषण रूप मोह-पाश में फंसता हुआ, गरीब लोगों को ठगकर अन्याय से धन पैदा करता है, वह मनुष्य धन और कुटुम्ब को यहीं छोड़कर और जो पाप किये हैं उनको अपना साथी बनाकर नरक में उत्पन्न होता है। मूल: एयाणि सोच्चा णरगाणि धीरे, न हिंसए किंचण सबलोए। ... एगंतदिट्ठी अपरिम्गहे उ, बुझिज लोयस्स वसं न गच्छे||१३|| छायाः एतान् श्रुत्वा नरकान् धीरः, नहिंस्यात् कञ्चन् सर्वलोके। एकान्त दृष्टिरपरिग्रहस्तु, बुध्वा लोकस्य वशं न गच्छेत्।।१३।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (एगंतदिट्ठी) केवल सम्यक्त्व की है दृष्टि जिनकी और (अपरिग्गहेउ) ममत्व भाव रहित ऐसे जो (धीरे) बुद्धिमान मनुष्य हैं वे (एयाणि) इन (णरगाणि) नरक के दुखों को (सोच्चा) सुनकर (सव्वलोए) सम्पूर्ण लोक में (किंचण) किसी भी प्रकार goo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope 1000000000000000000000000000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/183 1000000000000000000 Jain Education International Dooooo0000000000000 For Personal & Private Use Only /www.jainelibrary.org,

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