Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

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Page 200
________________ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl bo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे गौतम! पन्द्रह कारणों से मनुष्य विनम्र शीलवान या विनीत कहलाता है- वे पन्द्रह कारण यों हैं (1) अपने बड़े बूढ़े व गुरुजनों के साथ नम्रता से जो बोलता हो, (2) उनसे नीचे आसन पर बैठता हो, पूछने पर हाथ जोड़कर बोलता हो, बोलने, चलने, बैठने आदि में जो चपलता न दिखाता हो (3) सदैव निष्कपट भाव से जो बर्ताव करता हो (4) खेल, तमाशे आदि कौतुकों के देखने में विशेष उत्सुक न हो। मूल : अप्पं चाहिक्खिवई, पबंधं च न कुई। मेतिन्जमाणो मयई, सुयं लद्धं न मज्जई||१०|| न य पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पई। अप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासई||११|| कलहडमरवज्जए, बुद्धे अभिजाइए। हिरिमं पडिसंलीणे, सुवणीए ति वुच्चई||१२|| छायाः अल्पं च अधिक्षिपति, प्रबन्धं च न करोति। मैत्रीपमाणो भजते, श्रुतं लब्ध्वा न माद्यति।।१०।। न च पापपरिक्षेमी, न च मित्रेषुः कुप्यति। अप्रियस्यापि मित्रस्य, रहिस कल्याण भाषते||११|| कलहडमरवर्जकः, बुद्धोऽभिजातकः। हीमान् प्रतिसंलीन५, सुविनीत इत्युच्यते।।१२।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अहिक्खिवई) बड़े-बूढ़े तथा गुरुजन आदि किसी का भी जो तिरस्कार न करता हो (च) और (पबंध) कलहौत्पादक कथा (न) नहीं (कुव्वई) करता हो, (मतिज्जमाणो) मित्रता को (भयई) निभाता हो, (सुयं) श्रुत ज्ञान को (लद्धं) पा करके जो (न) नहीं (मज्जई) मद करता हो (य) और (न) नहीं करता हो (पावपरिक्खेवी) बड़े-बूढ़े तथा गुरुजनों की भूल को (य) और (मित्तेसु) मित्रों पर (न) नहीं (कुप्पई) क्रोध करता हो (अप्पियस्स) अप्रिय (मित्तस्स) मित्र के (रहे) परोक्ष में (अवि) भी, उसके (कल्लाण) गुणानुवाद और काया युद्ध दोनों से अलग रहता हो, (बुद्ध) वह तत्वज्ञ फिर (अभिजाइए) कुलीनता के गुणों से युक्त हो, (हिरिम) लज्जावान् हो, (पडिसलीणे) इन्द्रियों पर विजय पाया हुआ हो, वह (सुविणीए) विनीत है। (त्ति) ऐसा ज्ञानीजन (वुच्चई) कहते हैं। 4 निर्ग्रन्थ प्रवचन/197 goo0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000 00000000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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