Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

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Page 197
________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ligooo000000000000000000 DOOOOOOOOOOO P00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल : आसणगओण पुच्छेज्जा, णेव सेज्जागओ कयाइवि। आगम्मुक्कुडुओ संतो, पुच्छेज्जा पंजलीउडो||३|| छायाः आसनगतो न पृच्छेत्, नैव शय्यागतः कदापि च। आगम्य उत्कुटुकः सन्, पृच्छेत प्राञ्जलिपुटः / / 3 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! गुरुजनों से (आसणगओ) आसन पर बैठे हुए कोई भी प्रश्न (ण) नहीं (पुच्छेज्जा) पूछना और (कयाइवि) कदापि (सेज्जागओ) शय्या पर बैठे हुए भी (ण) नहीं पूछना, हाँ (आगम्मुक्कुडुओ) गुरुजनों के पास आकर उकडू आसन से (संतों) बैठकर (पंजलीउडो) हाथ जोड़कर (पुच्छिज्जा) पूछना चाहिए। __भावार्थ : हे गौतम! अपने बड़े-बूढ़े गुरुजनों को कोई भी बात पूछना हो तो आसन पर बैठे हुए या शयन करने के बिछोने पर बैठे कभी नहीं पूछना चाहिए। क्योंकि इस तरह पूछने से गुरुजनों का अपमान होता है और ज्ञान की प्राप्ति भी नहीं होती है। अतः उनके पास जाकर उकडू आसन से बैठकर हाथ जोड़कर प्रत्येक बात को गुरु से पूछे / मूल : जंमे बुद्धाणुसासंति, सीएणा फरुसेण वा। मम लाभो तिपेहाए, पयओतं पडिस्सुणे||४|| छायाः यन्मां बुद्धा अनुशासन्ति, शीतेन परुषेण वा। मम लाभ इति प्रेक्ष्य, प्रयतस्तत् प्रतिश्रृणुयात्।।४।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (बुद्धा) बड़े-बूढ़े गुरुजन (ज) जो शिक्षा दे, उस समय यों विचार करना चाहिए, कि (मे) मुझे (सीएण) शीतल (व) अथवा (फरुसेण) कठोर शब्दों से (अणुसासंति) शिक्षा देते हैं। यह (मम) मेरा (लाभो) लाभ है (ति) ऐसा (पेहाए) समझकर षट्कायों की रक्षा के लिए (पयओ) प्रयत्न करने वाला महानुभाव (तं) उस बात को (पडिस्सुणे) श्रवण करे। भावार्थ : हे गौतम! बड़े-बूढ़े व गुरुजन मधुर या कठोर शब्दों में शिक्षा दें, उस समय अपने को यों विचार करना चाहिए, कि जो यह शिक्षा दी जा रही है, वह मेरे लौकिक ओर पारलौकिक सुख के लिए है। अतः उनकी अमूल्य शिक्षाओं को प्रसन्न चित्त से श्रवण करते हुए अपना अहोभाग्य समझना चाहिए। मूल : हियं विगयभया बुद्धा, फरुसं पि अणुसासणं| वेसं तं होइ मूढाणं, खंतिसोहिकरं पयं||५|| 50000000000000000000000000000000000000 Do000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/194 DO 000000000000 Jain conmemorar For Personal & Private Use Only 00000000000 /www.jairnelibrary.org

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