Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

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Page 165
________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000 0000000000000000000000000000000 Pooooooooooooooooooooo00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (समाए) समभाव से (पेहाए) देखता हआ जो (परिव्वयंतो) सदाचार सेवन में रमण करता है। उस समय (सिया) कदाचित् (मणो) मन उसका (बहिद्धा) संयम जीवन से बाहर (निस्सरई) निकल जाए तो विचार करे कि (सा) वह (मह) मेरी (न) नहीं है। और (अहं पि) मैं भी (तीसे) उसका (नो वि) नहीं ही हूँ। (इच्चेव) इस प्रकार विचार कर (ताओ) उससे (राग) स्नह भाव को (विणएज्ज) दूर करना चाहिए। भावार्थ : हे आर्य! सभी जीवों पर समदृष्टि रख कर आत्मिक ज्ञानादि गुणों में रमण करते हुए भी प्रमादवश यह मन कभी कभी संयमी जीवन से बाहर निकल जाता है, क्योंकि हे गौतम! यह मन बड़ा चंचल है वायु की गति से भी अधिक तीव्र गतिमान है। अतः जब संसार के मनमोहक पदार्थों की ओर यह मन चला जाए, उस समय यों विचार करना चाहिए कि मन की यह धृष्टता है, जो सांसारिक प्रपंच की ओर घूमता है। स्त्री, पुत्र, धन वगैरह सम्पत्ति मेरी नहीं है और मैं भी इनका नहीं हैं। ऐसा विचार कर उस सम्पत्ति से स्नेह भाव को दूर करना चाहिए। जो इस प्रकार मन का निग्रह करता है, वही उत्तम मनुष्य है। मूल : पाणिवहमुसावायाअदत्तमेहुणपरिग्गहा निरओ। राईभोयणविरओ, जीवो होइ अणासवो||ll छायाः प्राणि वधमृषावाद-अदत्तमैथुनपरिग्रहेभ्यो विरतः। रात्रिभोजनविरतः, जीवो भवति अनाश्रवः / / 8 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जीवो) जो जीव (पाणि वहमुसावाया) प्राणवध, मृषावाद (अदत्तमेहुणपरिग्गहा) चोरी, मैथुन और ममत्व से (विरओ) विरक्त रहता है और (राइभोयण विरओ) रात्रि भोजन से भी विरक्त रहता है, वह (अणासवो) अनाश्रवी (होइ) होता है। ___ भावार्थ : हे गौतम! आत्मा ने चाहे जिस गति व कुल में जन्म लिया हो, अगर वह हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, ममत्व और रात्रि भोजन से पृथक रहती हो तो वही आत्मा अनाश्रव होती है। अर्थात् उसके भावी नवीन पाप रूक जाते हैं और जो पूर्व भवों के संचित कर्म हैं, वे यहाँ भोग करके नष्ट कर दिये जाते हैं। मूल : जहा महातलागस्स, सनिरुद्धे जलागमे। उरिसंचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे||९|| 000000000000000000000000000000000000 0000000000000000 Jain delantemeten 10000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/1620 T arelibrary.org 00000000000

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