Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

View full book text
Previous | Next

Page 155
________________ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ : हे पुत्रों! जो मनुष्य अपने से जाति, कुल, बल, रूप आदि में न्यून हो, उसकी अवज्ञा या निन्दा करने से, वह मनुष्य दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण करता रहता है। जिस वस्तु को पाकर निन्दा की थी, वह पापिनी निन्दा उससे भी अधिक हीनावस्था में पटकने वाली है। ऐसा जानकर साधुजन न तो कभी दूसरे की निन्दा ही करते हैं, और न, पायी हुई वस्तु ही का कभी गर्व करते हैं। मूल: जे इह सायाणुगनरा, अज्झोववन्ना कामेहिं मुच्छिया। किवणेणसमंपगभिया, न विजणंतिसमाहिमाहित|७|| छायाः य इह सातानुगनरा, अध्युपपन्नाः कामैच्छिताः। कृष्णेन समं प्रगल्भिताः न विजानन्ति समाधिमाण्यातम्।।७।। अन्वयार्थ : हे पुत्रो! (इह) इस संसार में (जे) जो (नरा) मनुष्य (सायाणुग) ऋद्धि, रस साता के (अज्झोववन्ना) साथ (कामेहि) काम भोगों से (मुच्छिया) मोहित हो रहे हैं, और (किवणेण सम) दीन सरीखे (पगमिया) घेटे हैं वे (आहित) कहे हुए (समाहि) समाधि मार्ग को (न) नहीं (वि जाणंति) जानते हैं। भावार्थ : हे पुत्रो! इस संसार में अनेक प्रकार के वैभवों से युक्त जो मनुष्य है, वे काम भोगों में आसक्त होकर कायर की तरह बोलते हुए, धर्माचरण में हठीलापन दिखाते हैं, उन्हें ऐसा समझो कि वे वीतराग के कहे हुए समाधि मार्ग को नहीं जानते हैं। मूलः अबक्खुव दक्खुवाहियं, सद्दहसु अद्दवखुदंसणा। हंदि हुसुनिरुद्भदंसणे, मोहणिज्जेण कडेण कम्मुणाlllll छायाः अपश्य इव पश्वव्याख्यातं, श्रद्धस्व अपश्यक दर्शनाः। हहो हि सुनिरुद्धदर्शनाः, मोहनीयेन कृतेन कर्मणा।।८।। अन्वयार्थ : हे पुत्रो! (अद्दक्खुव) तुम अन्धे क्यों बने जा रहे हो। (दक्खुवाहियं) जिनने देखा है उनके वाक्यों में (सद्दहसु) श्रद्धा रखो और (हंदि अदक्खुदंसणा) हे ज्ञान शून्य मनुष्यों! ग्रहण करो वीतराग के कहे हुए आगमों को। परलोकादि नहीं है, ऐसा कहने वालों के (मोहणिज्जेण) मोहवश (कडेण) अपने किए हुए (कम्मुणा) कर्मों द्वारा (दसणे) सम्यक् ज्ञान (सुनिरुद्ध) अच्छी तरह ढका है। भावार्थ : हे पुत्रो! कर्मों के शुभाशुभ फल होते हुए भी जो उसकी नास्तिकता बताता है, वह अन्धा ही है। ऐसे को कहना पड़ता है कि 500000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000ooooc 1000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/1523 Jain ESTE ooooooooooooool For Personal & Private Use only 0000 M er org

Loading...

Page Navigation
1 ... 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216