________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000g 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छाया; शल्यं कामा विषं कामाः, कामा आशी विषोपमाः। कामान् प्रार्थयमाना, अकामा यान्ति दुर्गतिम्।।१०।। ___ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (कामा) काम भोग (सल्लं) कांटे के समान है (कामा) कामभोग (विसं) विष के समान है (कामा) कामभोग (आसीविसोवमा) दृष्टि-विष सर्प के समान है, (कामे) कामभोगों की (पत्थेमाणा) इच्छा करने पर (अकामा) बिना ही विषय वासना सेवन किये यह जीव (दुगगई) दुर्गति को (जंति) प्राप्त होता है। भावार्थ : हे आर्य! यह काम भोग चुभने वाले तीक्ष्ण कांटे के समान है, विषय वासना का सेवन करना तो बहुत ही दूर की बात, उसकी इच्छा मात्र करने से ही मनुष्यों की दुर्गति होती है। मूल: खणमेचसुक्खा बहुकालदुक्खा पगामदुक्खा अनिगामसुक्खा| संसारमोक्खस्स विपक्खभूया खाणी अणत्याण उकामभोगा||१|| छायाः क्षणमात्रसौख्या बहुकाल दुःखाः, प्रकामदुःख अनिकामसौख्याः / संसारमोक्षस्य विपक्षभूताः, खानिरनर्थाना तु कामभोगाः / / 1 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (कामभोगा) ये काम भोग (खणमेत्तंसुक्खा) क्षण भर सुख देने वाले हैं, पर (बहुकालदुक्खा) बहुत काल तक के लिए दुःख देने वाले हैं। अतः ये विषय भोग (पगामदुक्खा) अत्यन्त दुःख देने वाले और (अनिगामसुक्खा) अत्यल्प सुख के दाता हैं। (संसारमोक्खस्स) संसार से मुक्त होने वालों को ये (विपक्खभूया) घोर विरोधी शत्रु के समान है और (अणत्थाण) अनर्थों की (खणी उ) खदान के समान हैं। भावार्थ : हे गौतम! ये काम भोग केवल सेवन करते समय ही क्षणिक सुखों को देने वाले हैं और भविष्य में वे बहुत अर्से तक दुःखदायी होते हैं। इसलिए हे गौतम! ये विषय भोग अत्यन्त दुःख के कारण हैं, क्षणिक सुख के कारक हैं। अतः ये भोग संसार से मुक्त होने वाले के लिए पूरे शत्रु के समान होते हैं और सम्पूर्ण अनर्थों को पैदा करने वाले हैं। मूल : जहा किंपागफलाणं, परिणामो न सुन्दरो। एवं भुत्तण भोगाणं, परिणामो न सुन्दरो||१२|| छायाः यथा किम्पाकफलानां, परिणामो न सुन्दरः / एवं भुक्तानां भोगाना, परिणामो न सुन्दरः / / 12 / / अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (जहा) जैसे (किंपागफलाणं) किंपाक नामक फलों के खाने का (परिणामो) परिणाम (सुन्दरों) अच्छा (न) नहीं 100000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/95 0000000000000000 000000000000000 Jan Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org