Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

View full book text
Previous | Next

Page 131
________________ 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oogl 1000000000000000000000000000000 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000060 (पहाणाइ) प्रकृति ने बनाया है तथा नियति ने बनाया है। कोई बोलते हैं कि (लोए) लोक (सयंभुणा) विष्णु ने (कड़े) बनाया है। फिर मार "मृत्यु" बनाई। (मारेण) मृत्यु से (माया) माया (संथुया) पैदा की (तेण) इसी से (लोए) लोक (असासए) अशाश्वत है। (इति) ऐसा (महेसिणा) महर्षियों ने (वुत्त) कहा है और (एगे) कई एक (माहणा) ब्राह्मण (समणा) संन्यासी (जगे) जगत् (अंडकडे) अण्डे से उत्पन्न हुआ ऐसा (आह) कहते हैं। इस प्रकार (असो) ब्रह्मा ने (तत्तमकासी य) तत्व बनाया ऐसा कहने वाले (अयाणंता) तत्व को नहीं जानते हुए (मुस) झूठ (वदे) कहते हैं। भावार्थ : हे गौतम! इस संसार में ऐसे भी लोग हैं, जो कहते हैं, कि जड़ और चेतन स्वरूप एवं सुख दुख युक्त जो यह लोक हैं, इसकी इस प्रकार की रचना देवताओं ने की है। कोई कहते हैं कि ब्रह्मा ने सृष्टि बनायी है। कोई ऐसा भी कहते हैं कि ईश्वर ने जगत की रचना की है। कोई यों बोलते हैं कि सत्व, रज, तम, गुण की सम अवस्था को प्रकृति कहते हैं। उस प्रकृति ने इस संसार की रचना की है। कोई यों भी मानते है, कि जिस प्रकार कांटे तीक्ष्ण, मयुर के पंख विचित्र रंग वाले, गन्ने में मिठास, लहसुन में दुर्गंध, कमल सुगंधमय स्वभाव से ही होते हैं, ऐसे ही सृष्टि की रचना भी स्वभाव से ही होती है। कोई इस प्रकार कहते हैं कि इस लोक की रचना में स्वयंभू विष्णु अकेले थे। फिर सृष्टि रचने की चिन्ता हुई जिससे शक्ति पैदा हुई। तदनंतर सारा ब्रह्माण्ड रचा और इतनी विस्तार वाली सृष्टि की रचना होने पर यह विचार हुआ कि इस का समावेश कहाँ होगा? इसलिए जन्मे हुओं को मारने के लिए यम बनाया। उसने फिर माया को जन्म दिया। कोई यों कहते हैं कि पहले ब्रह्मा ने अण्डा बनाया। फिर वह फूट गया। जिसके आधे का ऊर्ध्व लोक और आधे का अधोलोक बन गया और उसमें उसी समय समुद्र, नदी, पहाड़, गांव आदि सभी की रचना हो गई। इस तरह सृष्टि को बनाया। ऐसा उनका कहना है, हे गौतम! यह सत्य से एकदम अलग व भ्रांत मान्यता है। मूल: सरहिं परियाएहिं, लोयंबूया कडे ति या तत्वं तेणं विजाणंति, ण विणासी कयाइ वि||२१|| छायाः स्वकैः प्रयायै लोक-मब्रवन कतमिति च। तत्त्व ते न विजानन्ति, न विनाशी कदापि च।।२१|| अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! जो (सएहिं) अपनी अपनी (परियाएहिं) पर्याय कल्पना करके (लोयं) लोक को अमुक अमुक ने (कडे सि) निर्ग्रन्थ प्रवचन/128 ago000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000pt 50000000000000 Jain Education International 500000000000 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216