Book Title: Nirgranth Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Guru Premsukh Dham

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Page 115
________________ 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000000000 00000000000000000 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 छायाः देवेनैरयिकेचातिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत्। ____एकैक भवग्रहणं, समयं गौतम! मा प्रमादीः / / 14 / / अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (देवे) देव (नेरइए) नारकीय भवों में (अइगओ) गया हुआ (जीवो) जीव (इक्किक्कभवग्गहणे) एक एक भव तक उसमें (संवसे) रहता है। अतः (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद कभी मत कर। भावार्थ : हे गौतम! जब यह आत्मा देव अथवा नारकीय भवों में जन्म लेता है तो वहां एक एक जन्म तक अवश्य रहता है (बीच में नहीं निकल सकता) अतएव हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। मूल: एवं भवसंसारे, संसरइ सुहासुहेहिं कम्मेहि। जीवोपमायबहुलो, समयं गोयम! मा पमायए||१५|| छायाः एवं भवसंसारे, संसरति शुभाशुभैः कर्मभिः / जीवो बहुल प्रमादः समयं गौतम! मा प्रमादीः।।१५।। अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (एवं) इस प्रकार (भवसंसारे) जन्म मरण रूप संसार में (पमायबहुलो) अति प्रमाद वाला (जीवो) जीव (सहासुहेहिं) शुभ-अशुभ (कम्मेहिं) कर्मों के कारण से (संसरइ) भ्रमण करता रहता है। अतः (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर। - भावार्थ : हे गौतम! इस प्रकार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि एकेन्द्रिय दैन्द्रिय, तीन इन्द्रिय चार इन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय वाली तिर्यंच योनियों में एवं देव तथा नरक में संख्याता, असंख्याता और अनंत काल तक अपने शुभाशुभ कर्मों के कारण यह जीव भटकता फिरता है। इसी से कहा गया है कि इस आत्मा को मनुष्य भव मिलना महान एवं कठिन अवसर है। इसलिए मानव देहधारी हे गौतम! अपनी आत्मा को उत्तम अवस्था में पहुँचाने के लिए मुहुर्त मात्र का भी प्रमाद कभी मत कर। मूल: लण वि माणुसत्तणं, आरियत्तं पुणरावि दुल्लहं। बहवे दसुआ मिलक्खुआ, समयं गोयम! मा पमायए||१६|| छायाः लब्ध्वाऽपि मानुषत्वं, आर्यत्वं पुनरपि दुर्लभम्। बहवो दस्यवो म्लेच्छाः , समयं गौतम! मा प्रमादीः।।१६।। 5000000000000000000000000000000000000000000000000000000oope oo00000000000000 Jain Education International नै निर्ग्रन्थ प्रवचन/112 car personal & Private Use Only D000000000000 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only ional

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