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१ पक्षपात व एकान्त
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वैज्ञानिक वन
जाकर सभव हो, और तव तो शोधन का कोई प्रश्न ही नही रहेगा। परन्तु वर्तमान में दूसरा उपाय ही विशेष प्रयोजनीय सभव है । तेरी वहियो मे अव तक केवल उन्ही बातों के खतियान तो होये हुए है जो कि तू जानता है, पर उन बातों का खतियान वहां नही है जो कि तू नही जानता । और हो भी कैसे, जो बात जानी ही नही उसका खतियान कर ही कैसे सकता है ? अत भाई। सब खातो के अतिरिक्त वहा एक खाता और भी डाल ले। उसका शीर्पक होगा "कुछ और भी है।" इतना ही यदि कर पाया तो तेरी प्रवृत्ति में बहुत बड़ा अन्तर पड जायगा । क्योकि खाली पड़े उस खाते के अन्तर्गत तू बराबर इन्द्राज करने का प्रयत्न करता रहेगा, जो कि तेरे अन्दर नई नई वातें जानने व खोजने की जिज्ञासा उत्पन्न कर देगा। बस अब तू दूसरे की बात का निषेध करने की बजाय उसे समझ कर यथायोग्य रूप से फिट विठाने का प्रयत्न किया करेगा , और इस प्रकार उस खाते मे नित नये नये इन्द्राज होते रहेगे, अर्थात् तेरे ज्ञान मे वृद्धि होती रहेगी। पक्षपात वृद्धि के मार्ग मे सब से बड़ी अड़चन है । और उपरोक्त जिज्ञासा वृद्धि के मार्ग की सब से बडी सहायक । ..
प्रभो ! लौकिक व अलौकिक किसी भी बात को पक्षपाती व ५ वैज्ञानिक साम्प्रदायिक बनकर जाना नहीं जा सकता, क्योकि
वन ऐसी दृष्टि मे संकीर्णता वास करती है । मेरी ही बात सच्ची है अन्य सब की 'झूठी' ऐसा सा अभिप्राय अन्दर मे छिपा बैठा रहता है, जो अन्य की बात सुनने तक की आज्ञा नही देता । एक वैज्ञानिक की भाति स्वतत्र व्यापक व जिज्ञासु दृष्टि रखने से ही नई नई बाते जानी जा सकनी संभव है । देख ! एक वैज्ञानिक की जिज्ञासा, क्या कभी उसे भी किसी साहित्य का निषेध करता हुआ सुना है तूने ? यह पुस्तक तो मै नही पढ़गा, या इस व्यक्ति की बात तो मै न सुन्गा, क्योकि यह मेरे गुरु की लिखी हुई नही है या यह बात मेरी धारणा के अनुकूल नही है, क्या ऐसा विचार कभी वैज्ञानिक को