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२. वचनो मे अतरंग भावो की झलक ५
१ पक्षपात का विष
पहिला वाक्य सुनकर आपको क्रोध तथा दूसरा वाक्य सुनकर कुछ पश्चाताप ही होगा ।
बस सिद्धान्त निकल गया । क्रोध से निकले शब्द का अर्थ है क्रोध और साम्यता से निकले शब्द का अर्थ है साम्यता । अन्तरग के जिस अभिप्राय मे से शब्द उत्पन्न होता है उसका अर्थ व प्रभाव भी वही होता है, भले ही उस शब्द का अर्थ कुछ भी हो । कर्कश भी वचन . हितकारी, व मीठे भी वचन अहितकारी होते देखे जाते है । उसका कारण केवल वक्ता के अन्दर मे बैठा अपना परिणाम ही है । इसीलिए जिस बात को मै धर्म चर्चा कहता आया हूं वह वास्तव में अभिमान चर्चा बनती रही हैं । और इस प्रकार धर्म के नाम पर मै सदा अपने व दूसरे के जीवन मे विष घोलता चला आ रहा हू । मजे की बात यह है कि बात करता हूं कल्याण की । नाथ ! कल्याण पक्षपात मे नही सरलता मे से निकलेगा । दूसरे को समझाने से नही स्वयं समझने से निकलेगा । अभिमान से नही साम्यता से निकलेगा । यदि वास्तव मे कल्याण की भावना रखी होती तो चर्चा या समझने समझान का ढग ही बदल जाता | मेरी बात सांम्यता मे से निकल रही है, या अगले की _बात मे 'साम्यता से सुन रहा हू या अभिमान से, यह बात किसी अन्य से पूछकर निर्णय करने की आवश्यकता नही, हृदय स्वय इस बात का साक्षी है । इतना ही संकेत करना यहा पर्याप्त है कल्याणार्थ व हितार्थ है, अहंकार पोषणार्थ नही । अत भो चेतन ! समस्त अन्तरंग के पक्षपातो व पुरानी धारणाओं को दबाकर अब इस अमृत रस का पान करने का प्रयत्न कर । दूसरे को समझाने का भाव दबाकर स्वयं समझने का प्रयत्न कर। अपने हित की भावना जागृत करके उसे सुन व समझ । भले ही तू ऐसा मानता हो कि में तो वह बात अच्छी तरह समझता हू । भले ही तेरे साथ विद्वत्ता की उपाधि लगी हो, पर वास्तव में उस बात का रहस्यार्थ आज तक तू सीख नही पाया । यदि सीख पाता तो अन्तरंग से निकली यह शब्दों की खेचातानी शेष न रह पाती । पक्षपात का स्थान सरलता ने ले लिया होता ।
कि यह बात