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१. पक्षपात व एकान्त
४ २ वचनो में अतरग भावो की झलक
प्रदर्शन तथा अधिक से अधिक अपने हामियो व अनुयायियों की संख्या मे वृद्धि करने की भावना । वहा पड़े है लोकेषणा व स्वार्थ, और इस प्रकार कल्याण मे से निकली भी वह बात मेरे व सुनने वाले दोनो के लिये अकल्याणकारी हो जाती है ।
मेरे लिये तो अकल्याणकारी है इसलिये, कि मै उसमे अपनी २. वचनो मे लोकेषणा व स्वार्थ का ही प्रदर्शन करता हूँ । उसमे भले अतरग भावो कल्याण हो पर वह मै देखने का प्रयत्न ही कब करता की झलक हूँ। मुझे तो उसमे दिखाई देती है कोरी विद्वता व मेरे पक्ष का पोषण । अभिमान के दर्शन करते रहने पर सरलता कैसे आ सकती है। और दूसरे के लिये अकल्याणकारी हो जाती है इसलिये, कि अभिमान मे रगी हुई उस बात मे सुनने वाले बेचारे को अभिमान के अतिरिक्त दिखाई ही क्या देगा? शब्द तो जड़ है। वास्तव में उसका रहस्य तो उस भावना मे छिपा पड़ा है, जिसके आधार पर कि वह निकल रहा है। शब्द मुख से कभी अकेला नहीं निकला करता, बल्कि अपने साथ कुछ और वस्तु को लेकर ही वह प्रगट होता है । वह वस्तु अदृष्ट व अव्यक्त भले हो पर उसे सुनने वाला महसूस अवश्य कर लेता है। जैसे कि--मै क्रोध या द्वेष को हृदय मे रखकर यदि आपको यह ने शब्द कहूं कि, “वीतराग की शरण मे आकर भी तू यह शास्त्रार्थ करता है, वाद-विवाद करता है । तुझे लज्जा नही आती।" और यही वाक्य आपके हित को व साभ्यता को हृदय मे धर कर यदि कहू कि“भो भव्य! वीतराग की शरण मे आकर भी तू यह शास्त्रार्थ या वाद-विवाद - करता है, क्या लज्जा नही आती," तो आप स्पष्ट रूप से इस एक ही वाक्य मे से दो अर्थो का ग्रहण किये बिना नहीं रहेगे । यद्यपि लेखनी मे उस भाव का प्रदर्शन किया जाना अशक्य है, पर अनुमान किया जा सकता है। दोनों भावों को धारण करने के कारण मेरी मुखाकृति व शब्दों के साथ-साथ सुनाई देने वाली व दीखने वाली कर्कशता व सौम्यता क्या इस एक ही वाक्य के अर्थ का प्रभाव आप पर जुदा-जुदा न डालेगी?