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धनपुर ने एक निर्भाव-सी हुँकारी भरी । उसकी आँखें फिर कपिली की ओर जा लगीं । डिमि मौन खड़ी सुन रही थी; देख रही थी ।
डिमि ! कपिली के साथ कितनी मिलती है उस अप्सरा की देह ! सच कितनी ! उस दिन के बाद डिमि को कभी नहीं देखा । याद जब-तब बराबर आती रही, पर मुँह से एक शब्द नहीं निकला । आज कपिली को पार करते समय सारी यादें बरबस कुरेद उठीं ।
हठात् भिभिराम ने टोका :
" अरे बारपूजिया वाली घटना तो तुमने सुनायी ही नहीं !" धनपुर का चिन्तन तार-तार बिखर गया । भिभिराम से बोला :
"समय ही कहाँ मिला । कामपुर पहुँचे तीन ही दिन तो हुए हैं । एक दिन भाभी ने रोक रखा, दूसरा गोस्वामीजी के साथ बीता। उसके बाद ही गया । अब बताये देता हूँ, सुनो। हाथ में समय है । देपारा पहुँचते तो देर लगेगी । रात भी हो आये तो असम्भव नहीं । मगर रास्ता तो मालूम है ?"
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"हाँ मालूम है । तीनेक घण्टे और लगेंगे, बस । पर इधर का अंचल निरापद है। तुम बेखटक बताओ ।"
धनपुर ने बीड़ी सुलगायी । भिभिराम का बैग इस कन्धे से उस पर जा लटका । फिर भिभिराम ने पूछा :
"अरे, तुम्हारी भाभी ने शिव-पार्वती की मनौती मानी थी, मालूम है ?”
धनपुर ने धुआँ आकाश की ओर छोड़ा। कहा :
.."
"उस सबसे कुछ नहीं हुआ करता। मैं तो
भिभिराम ठठा पड़ा । धनपुर ने विचित्र मुद्रा में उसकी ओर देखा : "क्यों, इस तरह हँस क्यों दिये ?"
"तुम्हारी ही बात याद करके ! डिमि को पाने के लिए तुम्हीं ने काला बकरा भेंट चढ़ाने की मनौती नहीं मानी थी ?"
" ज़रूर, मगर डिमि मिल सकी क्या ? ये सब ढकोसले हैं ! निरर्थक !" "कह लो कुछ भी, भगवान तो हैं।"
धनपुर के कण्ठ से एक गहरी साँस निकली । धीमे स्वर में बोला :
"तुम्हारे महापुरुष शंकर देव के ही जन्म-दिवस पर मेजर फ़िन्स ने कामपुर
के वॉलण्टियरों को अपने बूटों से नहीं रौंदा क्या, फुटबाल की तरह नहीं उछालाठुकराया क्या ! कितनी बेरहमी साथ उन पर लाठियां बरसायीं उसने ! भगवान होता तो नृसिंह के रूप में अवतार ज़रूर लेता । लिया कहीं आज के दिन तक भी ?"
"मगर अवतार तो हुआ है धनपुर," माणिक बॅरा ने झट से कहा । "सब झूठ, " धनपुर के स्वर में उपेक्षा से अधिक उपहास था ।
मृत्युंजय | 7