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जयपुरकी असफल यात्रा
'भैया ! इस छतरीको ले लो।' उसने कहा - 'चोरीकी तो नहीं है, मैं चुप रह गया। आँखोंसे अश्रु आ गये, परन्तु उसने उन अश्रुओंको देखकर कुछ भी संवेदना प्रकट न की । कहने लगा- 'लो छह आना पैसे ले जाओ।' मैंने कहा - 'छतरी नवीन है, कुछ और दे दो ।' उसने तीव्र स्वरमें कहा - 'छह आने ले जाओ, नहीं तो चले जाओ।' लाचार छह आना ही लेकर चल पड़ा।
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दो पैसेके चने लेकर एक कुँए पर चाबे, फिर चल दिया, दूसरे दिन झाँसी पहुँचा। जिनालयोंकी वन्दनाकर बाजारमें गया, परन्तु पासमें तो साढ़े पाँच आना ही थे, अतः एक आनेके चने लेकर, गाँवके बाहर एक कुँए पर आया और खाकर सो गया। दूसरे दिन बरुआसागर पहुँच गया। यह वही बरुआसागर है जो स्वर्गीय श्री मूलचन्द्र जी सर्राफ और पं. देवकीनन्दनजी महाशयकी जन्मभूमि है। उन दिनों मेरा किसीसे परिचय नहीं था, अतः जिनालयकी वन्दना कर बाजारसे एक आनेके चने लेकर गाँवके बाहर चाबे और बाईजीके गाँव के लिए प्रस्थान कर दिया।
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यहाँसे चलकर कटेरा आया। थक गया। कई दिनसे भोजन नहीं किया था। पासमें कुल तीन आना ही शेष थे । यहाँ एक जिनालय है उनके दर्शन कर बाजारसे एक आनेका आटा, एक पैसेकी उड़दकी दाल, आध आनेका घी और एक पैसे का नमक- धनिया आदि लेकर गाँवके बाहर एक कुँए पर आया । पासमें बर्तन न थे, केवल एक लोटा और छन्ना था । कैसे दाल बनाई जाए ? यदि लोटामें दाल बनाऊँ तो पानी कैसे छानूँ ? आटा कैसे गूनूँ ? 'आवश्यकता आविष्कारकी जननी है' यह बात यहाँ चरितार्थ हुई । आटाको तो पत्थर पर गून लिया । परन्तु दाल कैसे बने ? तब यह उपाय सूझा कि पहले उड़दकी दालको कपड़ेके पल्लेमें भिगो दी। इसके भींग चुकनेपर आटे की रोटी बनाकर उसके अन्दर उसे रख दिया । उसीमें नमक, धनिया व मिर्च भी मिला दी । पश्चात् उसका गोला बनाकर और उसपर पलाशके पत्ते लपेट कर जमीन खोद कर एक खड्डेमें उसे रख दिया। ऊपर अण्डे कण्डा रख दिये। उसकी आग तैयार होने पर शेष आटेकी ४ बाटियाँ बनाईं और उन्हें सेंककर घी चुपड़ दिया। उन दिनों दो पैसेमें एक छटाँक घी मिलता था, इसलिये बाटियाँ अच्छी तरह चुपड़ी गई । पश्चात् आगको हटाकर नीचेका गोला निकाल लिया । धीरे-धीरे उसके ठण्डा होनेपर उसके ऊपरसे अधजले पत्तों को दूर कर दिया । फिर गोलेको फोड़कर छेवलेकी पत्तरमें दाल निकाल
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