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मेरी जीवनगाथा
गया। यहाँकी वन्दना व परिक्रमा की। दो दिन यहाँपर रहा। पश्चात् लश्कर-ग्वालियरके लिए स्टेशनपर गया। टिकिट लेकर ग्वालियर पहुंचा। चम्पाबागकी धर्मशालामें ठहर गया। यहाँके मन्दिरोंकी रचना देखकर आश्चर्यमें डूब गया। चूंकि ग्रामीण मनुष्योंको बड़े-बड़े शहरोंके देखनेका अवसर नहीं आता, अतः उन्हें इन रचनाओंको देख महान् आश्चर्य होना स्वाभाविक ही है। श्रीजिनालय और जिनबिम्बोंके दर्शनकर मुझे जो आनन्द हुआ वह वर्णनातीत है। दो दिन इसी तरह निकल गये। तीसरे दिन दो बजे दिनके शौचकी बाधा होनेपर आदतके अनुसार गाँवके बाहर दो मील तक चला गया। लौटकर शहरके बाहर कुआँपर हाथ पाँव धोए, स्नान किया और बड़ी प्रसन्नताके साथ धर्मशालामें लौट आया। आकर देखता हूँ कि जिस कोठीमें ठहरा था, उसका ताला टूटा पड़ा है और पासमें जो कुछ सामान था, वह सब नदारत है। केवल बिस्तर बच गया था। इसके सिवा अंटीमें पाँच आना पैसे, एक लोटा, छन्ना, डोरी, एक छतरी और एक धोती, जो बाहर ले गया था, इतना सामान शेष बचा था। चित्त बहुत खिन्न हुआ। ‘जयपुर जाकर अध्ययन करूँगा' यह विचार अब वर्षों के लिये टल गया। शोक-सागरमें डूब गया। किस प्रकार सिमरा जाऊँ ? इस चिन्तामें पड़ गया।
शामको भूखने सताया, अतः बाजारसे एक पैसेके चने और एक छदामका नमक लेकर डेरेमें आया और आनन्दसे चने चाबकर सायंकाल जिन भगवान के दर्शन किये तथा अपने भाग्यकी निन्दा करता हुआ कोठीमें सो गया। प्रातःकाल सोनागिरिके लिये प्रस्थान कर दिया। पासमें न तो रोटी बनानेको बर्तन थे और न सामान ही था। एक गाँवमें, जो ग्वालियर से १२ मील होगा, वहाँ आकर दो पैसेके चनें और थोड़ासा नमक लेकर एक कुँए पर आया और उन्हें आनन्दसे चाबकर विश्रामके बाद सायंकाल चल दिया। १२ मील चलकर फिर दो पैसेके चने लेकर वियालू की। फिर पञ्चपरमेष्ठिका ध्यानकर सो गया। यही विचार आया कि जन्मान्तरमें जो कमाया था उसे भोगनेमें अब आनाकानीसे क्या लाभ ?
इस प्रकार ३ या ४ दिन बाद सोनागिरि आ गया। फिरसे सिद्धक्षेत्रकी वन्दना की। पुजारीके बर्तनोंमें भोजन बनाकर फिर पैदल चल दतिया आया। मार्गमें चने खाकर ही निर्वाह करता था। दतियामें एक पैसा भी पास न रहा, बाजारमें गया, पासमें कुछ न था, केवल छतरी थी। दुकानदारसे कहा
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