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॥ ढाल सत्तरमी॥ ॥jबखडांनी देशी ॥ अहँ जिनपदपंकजे रे॥चि त्ततरु प्रहितंलेख ॥ सनेही सांजलो ॥ मानवत्यातनु मही पते रे ॥ कैश्तवर्जित एष ॥स॥१॥ नवतां पादप्रसादान्मे रे ॥ सौख्यं वर्त्तते चात्र ॥ स ॥ पर मेकेयं विज्ञप्ति रे॥ अवधार्या गुणपात्रं ॥ स ॥२॥ नूपतीनां करपीमनं रे ॥ मम सोत्सवतो विधाय ॥ स०॥ विरहं दत्तं तेन मे रे ॥ कार्यं तस्य उपाय सम्॥३॥ जवदागारादारल्यमें रे ॥ गृहयावन्यो तात ॥ स नित्वा नूमि विधातव्यं रे ॥ मार्ग खलु विख्यात ॥ स ॥४॥ येन मया आगम्यते रे ॥ उपनवतो हि सदैव ॥ स ॥ तात करिष्यामि तदा रे ॥ वार्ता पुषजं चैव ॥ स॥ ५॥ एकाकिन्या वा सो मे रे ॥ सुरंगगेहे पूज्य ॥ स॥ कि बहुनेयं विज्ञ ति रे ॥ स्तोकाने यं गुह्य ॥ स ॥ ६ ॥ एह समा चार वांचिने रे ॥धनदत्त धूज्यो अतीव स॥पालो पत्रसेवक नणी रे ॥ दीधो लिखीने तदीव ॥स०॥७॥ सेवके मानवती जणी रे॥जई उपजावी प्रीत ॥सणा धनदत्त करे विचारणा रे॥शी हवे करवी रीतास ॥७॥ एहवे प्रातसमय थयो रे ॥ तेमाव्या गृहकार
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