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का कुम्भक दिन-रात मे टो-चार वार कर ले और जिसे विशेष साधना करनी हो, वह घटो तक कुम्भक का अभ्यास कर सकता है।
___ कुम्भक जितना शक्तिस्रोत है, उतना ही भयकर है। कुम्भक की विशेष साधना किसी अनुभवी साधक की देख-रेख में ही की जा सकती है। उसमे खाने, चलने, बोलने की चर्या में पर्याप्त परिवर्तन करना पड़ता है। ___प्राणायाम के व्यावहारिक लाभ-पूरक से पुष्टि प्राप्त होती है। रेचक से उदर की व्याधिया क्षीण होती है। कुम्भक मे आन्तरिक शक्तियां जाग्रत होती है। चन्द्रस्वर से गर्मी शान्त होती है और सूर्यस्वर से गर्मी बढ़ती है। वायु तथा कफ के प्रकोप मिटते है। जो स्वर चल रहा हो, उसे रोककर विपरीत स्वर चलाने से तात्कालिक उपद्रव शान्त होते हैं। दूपित प्राण-वायु से जीवन की हानि होती है और शुद्ध प्राणवायु से जीवनी-शक्ति का विकास होता है। ___इन्द्रियविजय, मनोविजय, कपायविजय-इन शब्दों से म सुपरिचित हैं किन्तु प्राणविजय शब्द से हम सुपरिचित नहीं है। जैन लोगो मे एक साधारण धारणा है कि प्राणायाम हमारी परम्परा मे मान्य नहीं है, महर्पि पतजलि तथा हठयोग की परम्परा मे मान्य रहा है। यह धारणा समुचित नहीं है।
आवश्यक नियुक्ति मे श्वास का निरोध न किया जाए ऐसा उल्लेख मिलता है। किन्तु यह निषेध किसी विशेप स्थिति मे किया गया प्रतीत होता है। भद्रवाहु स्वामी महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे। उसकी आधार-भित्ति प्राणायाम है। अन्य अनेक आचार्यों ने ध्यान संवरयोग की साधना की है। उसमे भी प्राणायाम प्रमुख होता है। महाप्राण साधना या ध्यान योग की साधना मे वारह-वारह वर्प लग जाते थे। इस साधना मे लगने वाले संघीय कार्य करने से विरत हो जाते थे तथा किसी प्रमादवश प्राणहानि भी हो जाती थी। सभव है इसी प्रकार के किसी कारण को ध्यान में रखकर आवश्यक नियुक्ति मे श्वासनिरोध का निषेध किया गया।
वस्तुवृत्या प्राणायाम जैन-परम्परा से असम्मत नही है। प्राणायाम के विना प्राण-विजय नहीं हो सकती और उसके बिना इन्द्रिय-विजय, २० / मनोनुशासनम्