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कायशुद्धि के उपाय ___ कायोत्सर्ग, आसन, मूलबन्ध, उड्डीयानवन्ध, जालन्धरवन्ध, व्यायाम, प्राणायाम और निर्लेपता-ये कायशुद्धि के उपाय है।
कायशुद्धि के उपर्युक्त आसनो का वर्णन आसन प्रकरण में किया जायेगा।
मूलवन्ध-गुदा को ऊपर की ओर खीचने को मूलबन्ध कहा जाता है। साधना की प्रत्येक अवस्था मे मूलवन्ध करना बहुत आवश्यक है। यह एक प्रकार से साधना का आधारभूत है। इससे मूल नाड़ी सीधी हो जाती है। मन की एकाग्रता करने के लिए यह बहुत अपेक्षित है।
उड्डीयानवन्ध-श्वास का रेचन कर पेट को सिकोड़ना उड्डीयानवन्ध है। उड्डीयान करते समय छाती का भाग थोडा आगे की ओर उभरा हुआ होना चाहिए। उदर सम्वन्धी दोषो को मिटाने के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण उपाय है। इससे अग्नि प्रज्वलित होती है। पेट को सिकोडने पर इसका अन्तर्भाग पृष्ठरज्जु से सटकर उस पर दवाव डालता है। उससे तैजस्शक्ति (कुण्डलिनी) और ज्ञानततु दोनो प्रदीप्त होते है।
जालन्धरबन्ध-ठुड्डी को कण्ठकूप मे स्थापित करने को जालन्धर बन्ध कहा जाता है। सर्वागासन, हलासन, मत्स्यासन की एक मुद्रा मे यह अपने आप हो जाता है। मानसिक विकास के लिए यह बहुत उपयोगी है। इससे कण्ठमणि पर उचित दबाव पडता है। आधुनिक शरीर-शास्त्रियो के अनुसार कण्ठमणि ही शरीर मे रक्त, ताप तथा प्रेम, ईर्ष्या, द्वेष आदि वृत्तियो को नियत्रित करता है। यह हमारे शरीर की नियामक ग्रन्थि है। इस पर जालन्धरबन्ध के द्वारा हम नियंत्रण रख सकते है और अनेक उपयोगी रसो का स्राव कर सकते है।
मूलबन्ध लम्बे समय तक तथा चाहे जितनी बार किया जा सकता है। उड्डीयानबन्ध का अभ्यास भोजन करने से पूर्व किया जा सकता है किन्तु प्रारम्भ में लम्बे समय तक करना उचित नही है। पेट को भीतर की ओर सिकोडकर आधा मिनट तक रखा जा सकता है। एक सप्ताह के अभ्यास के वाद एक मिनट तक। इस प्रकार प्रति सप्ताह आधा या एक मिनट बढ़ाते-बढाते अपनी शक्ति व सहिष्णुता के अनुसार आधा घंटा तक बढ़ाया जा सकता है। इस बन्ध के साथ मूलबन्ध अवश्य होना २२ / मनोनुशासनम्