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लग जाता है। इस भूमिका मे ध्येय के साथ ध्याता का श्लेष हो जाता है। जिस प्रकार गोद से दो कागज चिपक जाते है, उसी प्रकार ध्याता का ध्येय के साथ चिपकाव हो जाता है किन्तु चिपके हुए दो कागज आखिर दो ही रहते है। उनमे एकात्मकता नही होती।
स्थिरता का अभ्यास क्रमशः बढ़ता है। उसकी वृद्धि एक दिन तन्मयता या लीनता के बिन्दु तक पहुंच जाती है। यह मन की पांचवीं अवस्था है। पानी दूध में मिलकर जैसे अपना अस्तित्व खो देता है, वैसे ही इस भूमिका मे ध्याता ध्येय में इतना तन्मय हो जाता है कि उसे अपने अस्तित्व का भान ही नहीं रहता। यह स्थिति पहले ही चरण मे प्राप्त नही होती किन्तु पूर्वोक्त क्रम से निरन्तर आगे बढ़ते रहने से एक दिन यह स्थिति अवश्य प्राप्त हो जाती है।
पांचवी भूमिका मे मन की स्थिरता शिखर तक पहुंच जाती है। किन्तु उसका (मन का) अस्तित्व या उसकी गति समाप्त नहीं होती। ध्याता ध्येय मे लीन होकर कुछ समय के लिए जैसे अपने उपलब्ध अस्तित्व को भुला देता है किन्तु ध्येय की स्मृति उसे बराबर बनी रहती है। छठी भूमिका मे वह ध्येय की स्मृति भी समाप्त हो जाती है। इसका अर्थ यह है कि मन का अस्तित्व या उसकी गतिक्रिया समाप्त हो जाती है। यह निरालम्बन ध्यान या सहज चैतन्य के उदय की भूमिका है। इसमें प्रत्यक्षानुभूति प्रबल हो जाती है, इसलिए इन्द्रिय और मन जो परोक्षानुभूति के माध्यम है, अर्थहीन बन जाते है-समाप्त हो जाते हैं। ___चैतन्य और आनन्द का स्वाभाविक सम्बन्ध है। जहां चैतन्य है, वहा आनन्द है और जहा आनन्द है, वहां चैतन्य है। इन दोनों मे से एक को पृथक् नही किया जा सकता। हर मनुष्य के भीतर जैसे चैतन्य का अजस्र प्रवाह है वैसे ही आनन्द का भी अजस्र प्रवाह है किन्तु मन की चचलता के कारण उसकी अनुभूति निरन्तर नही होती।।
कोई आदमी कुछ कहता है, उस समय यदि हमारा मन चंचल होता है तो हम उसकी बात को सुन ही नही पाते और यदि सुन पाते है तो उसे पूरी तरह पकड़ नहीं पाते। ठीक इसी प्रकार मन की चचलता के कारण अपने भीतर बहने वाले आनन्द के प्रवाह का हम स्पर्श नही कर पाते। जिस भूमिका मे मन थोडा स्थिर होता है, उस समय आनन्द की
मनोनुशासनम् । ३३