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हल्की-सी अनुभूति हो जाती है। जैसे-जैसे मन की स्थिरता की मात्रा बढती है, वैसे-वैसे आनन्दानुभूति की मात्रा बढती जाती है। मन का निरोध होने पर सहज आनन्द का साक्षात्कार हो जाता है।
मन की दूसरी और तीसरी कक्षा मे विकल्पो (कल्पनाओं) का सिलसिला चालू रहता है । अत मन दूसरी- दूसरी चीजो मे अटका रहता है । फलस्वरूप उस समय हम सहज चेतना के स्तर पर नही होते। उस समय जो आनन्द का अनुभव होता है, वह मन की स्थिरता के कारण अन्त स्रावी नलिकाओं मे होने वाले अन्त स्राव से होता है ।
चौथी और पाचवी कक्षा मे विकल्पो का सिलसिला नही रहता । हमारा मन एक ही विकल्प पर स्थिर हो जाता है । हमारे मस्तिष्क की सुखानुभूति की ग्रन्थि तथा अन्त स्रावी नलिकाओ पर उसका अधिक प्रभाव होता है । फलस्वरूप आनन्द की अनुभूति अधिक होती है ।
निरोध की कक्षा मे सहज आनन्द के साथ साक्षात् सम्पर्क हो जाता है । उस पर शारीरिक परिवर्तन का प्रभाव नही होता, इसलिए वह चिरस्थायी होता है 1
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पहली कक्षाओ मे सहज आनन्द की अनुभूति नही होती है, ऐसी वात नही है किन्तु उसकी पूर्ण अनुभूति निरोध की कक्षा मे होती है इसीलिए पहली कक्षाओ मे शारीरिक परिवर्तन से होने वाली आनन्दानुभूति की मुख्य रूप से चर्चा की गई है । वैसे तो किसी पौद्गलिक सम्पर्क के विना आनन्द की अनुभूति होती है, उसमे सहज आनन्द का प्रतिविम्व या प्रभाव रहता ही है ।
१६ ज्ञान-वैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥
१७. श्रद्धाप्रकर्षेण ॥
१८ शिथिलीकरणेन ॥
१६ संकल्पनिरोधेन ॥
२० ध्यानेन च ॥
२१ गुरूपदेश-प्रयत्नवाहुल्याभ्यां तदुपलव्धिः ॥
१६. आत्मज्ञान और वैराग्य से मन का निरोध होता है । आत्मज्ञान चैतन्य की अन्तर्मुखी प्रवृत्ति है । जब हमारे चैतन्य का प्रवाह अन्तर्मुख होता है तव मन की कल्पनाए और स्मृतिया निरुद्ध
३४ / मनोनुशासनम्