Book Title: Manonushasanam
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 166
________________ सार है। उसका केन्द्रस्थान हृदय है, फिर भी वह व्यापी है। इससे दो बाते निसपन्न होती हैं . १. ओज का सम्बन्ध केवल वीर्य से नही है। २. वीर्य का स्थान अण्डकोष है, जवकि ओज का स्थान हृदय ओज और वीर्य मे तीसरा अन्तर यह है कि वीर्य का मध्यम परिणाम ही लाभप्रद होता है। वह हीन मात्रा में हो तो क्षीणता आदि दोप बढते है। वह अति मात्रा में हो तो उससे मैथुन की प्रबल इच्छा और शुक्राश्मरी (शुक्र-जनित पथरी) रोग उत्पन्न होता है।' ओज जितना बढ़े उतना ही लाभप्रद है। उसकी वृद्धि से मन की तुष्टि, शरीर की पुष्टि और बल का उदय होता है। वीर्य-व्यय के दो मार्ग है । १. जननेन्द्रिय २ मस्तिष्क। भोगी तथा रोगी व्यक्ति के काम-वासना की उद्दीप्ति तथा वायुविकार आदि शारीरिक रोग होने पर वीर्य का व्यय जननेन्द्रिय से होता है। योगी लोग वीर्य का प्रवाह ऊपर की ओर मोड देते है। अतः उनके वीर्य का व्यय मस्तिष्क मे होता है। वीर्य का प्रवाह नीचे की ओर अधिक होने से काम-वासना बढती है और उसका प्रवाह ऊपर की ओर होने से काम-वासना घटती है। काम-वासना के कारण जननेन्द्रिय द्वारा जो वीर्य व्यय होता है, वह अब्रह्मचर्य का ही एक प्रकार है। वह सीमित होता है तो उसका शरीर पर अधिक हानिकार प्रभाव नही होता। मन में मोह ओर सस्कारो मे अशुद्धि उत्पन्न होती है। इसे आध्यात्मिक दृष्टि से हानि ही कहा जाएगा। जो आदमी अब्रह्मचर्य मे अति आसक्त होता है, उसकी वृषण ग्रन्थियो मे आने वाले रस-रक्त का उपयोग बहि.स्राव उत्पन्न करने वाले अवयव कर लेते है। इसका फल यह होता है कि अन्तःस्राव उत्पन्न करने वाली मे अशा अधिक हानि एक प्रकार १ सुश्रुत, ११/१२ अतिस्त्रीकामता वृद्ध, शुक्र, शक्राश्मरीमपि। २ वही, ११/१२ ओजे वृद्धौ हि देहस्य, तुष्टिपुष्टिवलोदय । १४४ / मनोनुशासनम्

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