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मे आत्मवोध अधिक तीव्र हो जाता है। ध्यान का अर्थ ही है-आत्मानुभूति या प्रत्यक्षानुभूति। इसलिए ध्यान और मूर्छा की दिशा एक नहीं है। मूळ मे बाह्य बोध और आन्तरिक बोध दोनों के प्रति शून्यता होती है। ध्यान में बाह्य बोध के प्रति शून्यता होती हैं किन्तु आन्तरिक बोध अधिक जागरूक हो जाता है।
प्रश्न-कायोत्सर्ग और ध्यान में क्या अन्तर है ?
उत्तर-शरीर की चंचलता का विसर्जन किए विना मन की चंचलता विसर्जित नहीं होती। इस दृष्टि से कायोत्सर्गध्यान का आधार है। कायोत्सर्ग मे शारीरिक स्थिरता की प्रधानता होती है जबकि ध्यान में मानसिक स्थिरता की।
ध्यान का एक अर्थ केवल स्थिरता किया गया है। उस परिमाया के आधार पर हमारे आचार्यों ने ध्यान के तीन प्रकार बतलाए हैं। १. कायिक ध्यान-शरीर की चंचलता का विसर्जन, कायोत्सर्ग या
कायगुप्ति। २. वाचिक ध्यान-वाणी की चंचलता का विसर्जन, मौन या
वचोगुप्ति। ३. मानसिक ध्यान-मन की चंचलता का विसर्जन, मनोगुप्ति !
इन भेदो के आधार पर ध्यान की परिभाषा यह हो सकती है-'कायबाङ् मनसां स्थिरीकरणं ध्यानम्।' श्वास की स्थिरता शरीर की स्थिरता से सलग्न है।
प्रश्न-समाधि और ध्यान में क्या अन्तर है ?
उत्तर-ध्यान से मन का समाधान होता है, इसलिए ध्यान स्वयं समाधि है। किन्तु परिभाषा की दृष्टि से समाधि ध्यान की उच्चतम स्थिति है। ध्यान की जिस भूमिका में मन पूर्णरूपेण निष्क्रिय हो जाता है, केवल चैतन्य का जागरण रहता है, उस स्थिति का नाम समाधि है। महर्षि पतंजलि के अनुसार वह योग का आठवां अंग है। जैन बाङ्मय के अनुसार वह ध्यान का ही एक विशिष्ट रूप है।
ध्यान की विधि
ध्यान करने से पहले शरीर को स्थिर करें। वह बिल्कुल न हित हुने ।
मनोनुशासनम् । ४५