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नही की जा सकती । ध्यान की तुलना उस धार से की जा सकती है, जिसमे क्रमभग नही होता ।
उक्त परिभाषाओ से फलित होता है कि ध्यान स्थिरता की दिशा मे वढने वाला चिंतन है। इसी आशय को 'एकाग्रे मन सन्निवेशन' के द्वारा व्यक्त किया गया है ।
प्रश्न - ज्ञान और ध्यान मे क्या अन्तर है ?
उत्तर- ध्यान ज्ञान की ही एक अवस्था है - ' व्यग्र, ज्ञान एकाग्र ध्यानं' - जो चंचल है, वह ज्ञान और स्थिर ज्ञान ही ध्यान है । ध्यानशतक
इसी आशय को स्पष्ट किया गया है-ज थिरमज्झवसाण झाण त चलतय चित्त- जो स्थिर चैतन्य है, वह ध्यान है और जो चल चैतन्य है, वह चित्त है। बर्फ को जल से भिन्न नही कहा जा सकता । जल तरल होता है तब जल कहलाता है। वही घनीभूत होकर वर्फ कहलाता है। ज्ञान और ध्यान की यही स्थिति है ।
प्रश्न - जप और ध्यान मे क्या अन्तर है ?
उत्तर- जप मे शब्द का उच्चारण होता है। ध्यान मे शब्द का उच्चारण नही होता है ।
प्रश्न- मानसिक जप मे शब्द का उच्चारण नही होता, क्या वह भी ध्यान है ?
उत्तर - यह ठीक है कि उसमे शब्द का उच्चारण नही होता किन्तु उसका पुनरावर्तन होता है। ध्यान मे न शब्द का उच्चारण होता है, न पुनरावर्तन । सामान्यतया जप ध्यान नहीं है - किन्तु कभी-कभी एकाग्रता की मात्रा बढ़ जाने पर वह ध्यान से अभिन्न हो जाता है ।
प्रश्न - यदि पुनरावर्तन नही होता तो ध्यान मे क्या किया जाता है ? उत्तर- ध्यान मे ध्येय को देखा जाता है । वास्तव मे ध्यान का चितन अर्थ व्युत्पत्तिलभ्य है । उसका प्रवृत्तिलभ्य अर्थ है - अन्तर्निरीक्षण, मानसिक चक्षु से देखना - साक्षात्कार करना । ध्यानकाल मे हम जिसका आलम्वन ले, वह मानसिक चक्षु से आलेखित चित्र की भाति स्पष्ट दीखने लग जाए तब ध्यान निष्पन्न होता है । हम ध्यान करने के लिए बैठते है तब किसी शब्द या आकृति का आलम्बन लेते है । आलम्बित शब्द और आकृति जब तक मानसिक चक्षु से स्पष्टत दीखने नही लग जाती, तब तक धारणा
मनोनुशासनम् / ४३