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वारुणी धारणा है।
धारणा ध्यान की प्रथम तैयारी है। इसमे चित्त पूर्णत: स्थिर नहीं होता किन्तु वह एक दिशा में होते-होते ध्यान की पृष्ठभूमि प्रस्तुत कर देता है। फिर साधक धारणा से मुक्त होकर ध्यान की कक्षा में चला जाता है।
पदस्थ ध्यान
यह ध्यान पदो-मंत्रो व वीजाक्षरो के आलम्वन से किया जाता है। पिण्डस्थ ध्यान जैसे देहावलम्बी है, वैसे पदस्थ ध्यान शब्दावलम्बी है। पिण्डस्थ ध्यान मे देहवर्ती चैतन्य केन्द्र, देह की अनुप्रेक्षा तथा देह और आत्मा की पृथक्ता-ये मुख्य ध्येय वनते है। पदस्थ ध्यान मे भी शब्द की सूक्ष्म शक्ति, उसके सूक्ष्म और स्थूल उच्चारण की प्रक्रिया और शब्दवर्ती - अर्थ के साथ तन्मयता-ये मुख्य ध्येय होते है। इस ध्यान के आधार पर ध्यान-मंत्री का पर्याप्त विकास हुआ है।
जप भी शब्दावलम्वी होता है और पदस्थ ध्यान भी शब्दावलम्वी होता है। ये दोनो किसी रेखा पर भिन्न होते हैं और किसी रेखा पर अभिन्न हो जाते है। जप का अर्थ है-शब्द की अर्थात्मा मे तन्मय हो जाना। पदस्य ध्यान में भी यही तन्मयता अपेक्षित है।
जप के तीन प्रकार है । १ वाचिक २ उपाशु ३. मानसिक
उच्चारणपूर्वक किया जाने वाला जप वाचिक होता है। मन्द उच्चारण-होठों से वाहर न निकलने वाले उच्चारण के द्वारा जप उपांशु होता है। उच्चारण से अतीत केवल मानसिक चिन्तन के रूप में किया जाने वाला जप मानसिक होता है। वाचिक जप से उपांशु और उपांशु जप से मानसिक जप मे शब्द की ऊर्मिया सूक्ष्म होती है और सूक्ष्म होने के कारण वे अधिक शक्तिशाली होती है। इसी आधार पर वाचिक की अपेक्षा उपाशु और उपाशु की अपेक्षा मानसिक जप अधिक शक्तिशाली होता है।
मनोनुशासनम् / १०६