________________
पूरक है। प्राण को नाभि से उठाकर नथुनो द्वारा वाहर ले जाते है, वह रेचक है। जिस अवस्था मे प्राणवायु का ग्रहण और विसर्जन नहीं करते, वह कुम्भक है। यह श्वास को रोकने की अवस्था है। श्वास को भीतर ले जाकर रोकते है, उसे अन्त कुम्भक कहा जाता है। उसे वाहर ले जाकर रोकते है उसका नाम वहिःकुम्भक है।
प्राण हमारी नाडियों से प्रवाहित होता है। वह कभी वायें नथुने से प्रवाहित होता है। उस मार्ग को इडा नाडी या चन्द्रस्वर कहा जाता है। प्राण कभी दाये नथुने से प्रवाहित होता है, उस मार्ग को पिंगला नाड़ी या सूर्यस्वर कहा जाता है। प्राण कभी दोनों नाड़ियो के वीच में प्रवाहित होता है, उस मार्ग का नाम सुषुम्ना नाडी है। चन्द्रस्वर शीत और सूर्यस्वर उष्ण होता है। सुपुम्ना मे सहज ही मन स्थिर हो जाता है। कपालभाति प्राणायाम से सुषुम्नास्वर चलने लग जाता है।
प्राणायाम के अनेक प्रकार हैं। किन्तु वायु-शुद्धि के लिए सर्वाधिक उपयोगी और सर्वाधिक निर्दोष अनुलोम-विलोम प्राणायाम है। __अनुलोम-विलोम प्राणायाम-दाये हाथ के अगूठे से दाये नथुने को वन्द कर बाये नथुने से श्वास ले और दाये नथुने से उसका रेचन करे। दाये हाथ की अनामिका और कनिष्ठा इन दो उगलियों से बाये नथुने को बन्द कर दायें नथुने से श्वास लें और वाये नथुने से उसका रेचन करें। प्रारम्भ मे ऐसी आठ-दस आवृत्तियां की जा सकती है, फिर धीमे-धीमे तीस तक बढाई जा सकती है।
प्राणायाम की कालमात्रा इस प्रकार होती हैपूरक
आठ मात्रा रेचक
सोलह मात्रा कुम्भक
बत्तीस मात्रा सकुम्भक अनुलोम-विलोम प्राणायाम-प्राणायाम की इस द्वितीय भूमिका मे कुम्भक किया जाना चाहिए। कुम्भक का कालमान ऊपर बताया गया है।
समूलबन्ध अनुलोम-विलोम प्राणायाम-इस प्रक्रिया मे अनुलोम-विलोम प्राणायाम के साथ मूलबन्ध और जुड़ जाता है।
सोड्डीयान अनुलोम-विलोम प्राणायाम-इस प्रक्रिया मे कुम्भक और १८ / मनोनुशासनम