Book Title: Malarohan Author(s): Gyanand Swami Publisher: Bramhanand Ashram View full book textPage 6
________________ आत्मानुभूति, सम्यक् दर्शन स्वानुभव प्रमाण है, सम्यकदृष्टि विचार करता है कि मेरा स्वरूप तो ज्ञान दर्शन मयी, परम वीतराग, आनंदमयी एवं अमूर्तीक है, इसी का अनुभव करने से परमशांति होती है। श्रद्धान में दृढ़ता पा लेने पर भी आत्म रस का अनुभव करने के लिए साधक को बार-बार स्वरूप की भावना करनी चाहिए, इस भावना के दृढ़ होने पर जब उसका उपयोग निज स्वरूप की तरफ जायेगा तब वह आत्म स्वरूप में निश्चल हो जायेगा और उसे आत्मानंद प्राप्त होगा। श्री गुरू तारण स्वामी से इस सूक्ष्म अनुभव के बारे में किसी जिज्ञासु ने पूछा था कि अनुभूति के समय कैसा लगता है और हमें सम्यक् दर्शन आत्मानुभूति हो गई यह हम कैसे जानें, इसका क्या प्रमाण है ? इस जिज्ञासा के समाधान में श्री गुरूदेव ने अंतर की अनुभूति का प्रमाण देते हुए कहा कि आत्मानुभूति होने पर - १ - शुद्ध ज्ञानमयी चित्प्रकाश का अनुभव होता है। २- " समस्त संकल्प विकल्प मुक्तं " अर्थात् निर्विकल्प दशा होती है। ३- अतीन्द्रिय आनन्द अमृत रस का स्वाद आता है। ४ - रत्नत्रय मयी अभेद सत्स्वरूप मात्र रहता है। इन प्रमाणों से हम भी अपने आप में निरीक्षण कर जान सकते हैं कि सम्यक् दर्शन हुआ या नहीं। सम्यक्दर्शन धर्म का मूल है, मोक्ष महल की पहली सीढ़ी है। अनादिकाल से जीव ने सब कुछ किया लेकिन भेदज्ञान पूर्वक अपने को नहीं जाना, सम्यक् दर्शन प्राप्त नहीं किया, इसी कारण संसार में रुल रहा है। आत्मा अनंत गुणों का भण्डार आनंदमयी परम तत्व है, जो जीव एक बार भी अपने स्वरूप को जान लेते हैं उन्हें फिर वही प्रिय लगता है, उन्हें संसार नहीं रूचता । भगवान महावीर स्वामी की दिव्य ध्वनि में अपने शुद्धात्म स्वरूप की महिमा आई धर्म की, शुद्धात्म तत्व ज्ञान गुण माला की अपूर्व महिमा सुनकर, सभा में उपस्थित प्रमुख श्रोता राजा श्रेणिक ने भगवान की प्रदक्षिणायें देकर अत्यंत भक्ति भाव से ज्ञान गुण माला मांगी। उन्होंने यह भी पूछा कि इस ज्ञान गुण माला 9 को प्राप्त करने का अधिकारी कौन है और यह किसको प्राप्त होगी ? भगवान की दिव्य ध्वनि में आया कि यह ज्ञान गुण माला शुद्धात्म स्वरूप धन से नहीं खरीदा जा सकता, धर्म की प्राप्ति में धन आदि बाह्य संयोग, पद और भेष आदि का कोई संबंध नहीं है। बाहर से किसी के पास पुण्य के सभी साधन हों किन्तु शुद्ध दृष्टि न हो तो यह ज्ञान गुण माला दिखाई नहीं देगी। शुद्ध दृष्टि जीव ही ज्ञान गुणमाला को देखने का अधिकारी है। उसमें भी सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की शुद्धि और वृद्धि जितनी जितनी होगी, उतनी ही पात्रता और पुरूषार्थ के अनुरूप साधक को स्वरूप का स्मरण ध्यान रहता है। चौथे गुणस्थान से सिद्ध पद तक सभी आत्मज्ञ ज्ञानी, योगी, साधक, साधु अपनी भूमिका और स्वरूपस्थ दशा के प्रमाण के अनुसार अपने शुद्धात्म तत्व को अनुभव में लेते हैं, स्वरूप का स्मरण ध्यान रखते हैं। यह सम्पूर्ण महिमा सम्यक्दर्शन आत्मानुभूति की है, जिसके आश्रय से जीव अनंत दुःखों के जाल को एक क्षण मात्र में काट देता है। सम्यक्दर्शन की अपूर्व महिमा का कथन करते हुए श्री गुरू तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज लिखते हैं " जे सिद्ध मुक्ति प्रवेसं सुद्धं सरूपं गुणमाल ग्रहितं । जे केवि भव्यात्म संमिक्त सुद्धं, ते जात मोष्यं कथितं जिनेन्द्रं ॥ जो अनंत सिद्ध परमात्मा मुक्ति को प्राप्त हुए हैं उनने शुद्ध स्वरूपी ज्ञान गुणमाला शुद्धात्म तत्व की अनुभूति को ग्रहण किया। जो कोई भी भव्यात्मा सम्यक्त्व से शुद्ध होंगे वे भी मुक्ति को प्राप्त करेंगे यह श्री जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। तारण तरण श्रावकाचार ग्रंथ में श्री गुरूदेव कहते हैं- "मिथ्यात्वं परम दुष्यानि संमिक्तं परमं सुखं" मिथ्यात्व महान अकल्याणकारी दुःख रूप है और सम्यक्त्व परम कल्याणकारी महासुख रूप है। जिस सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान तो मिथ्या ज्ञान और चारित्र, मिथ्याचारित्र हुआ करता है। वहीं सुख का स्थान भूत, मोक्ष रूपी वृक्ष का अद्वितीय बीज स्वरूप तथा समस्त दोषों से रहित सम्यग्दर्शन जयवंत होता है, उसके बिना प्राप्त हुआ भी मनुष्य जन्म, अप्राप्त हुए के समान है। 10Page Navigation
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