Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 5
________________ आत्मा ज्ञान स्वरूप है अत: अपने को ज्ञान स्वरूप ही देखना, जानना और श्रद्धान करना, इसी से निज स्वरूप में स्वत्व होता है और शरीरादि पर पदार्थों में अपनापन छूटता है, जिस समय जीव अपने ज्ञाता दृष्टा स्वरूप को पहिचानता है अर्थात् निज आत्मा की अनुभूति जाग्रत होती है, उसी समय से समस्त पर द्रव्य और परभाव 'पर' दिखाई देने लगते हैं। मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी का लोप हो जाता है और उनसे संबंधित बंध भी समाप्त हो जाता है, अब पर्याय में जो भी राग-द्वेष व कषाय आदि होती हैं, मात्र वे ही बंध के कारण शेष रह जाते हैं यद्यपि सम्यकदृष्टि अब इनमें अपनापना तो नहीं मानता किन्तु यह जीव की पर्याय में ही होते हैं अतः इनसे संबंधित भाव और बंध भी होता है। इसे मोक्षमार्ग का तो बोध हो ही गया है, इस चारित्र मोह को दूर करने के सम्यक् उपाय का भी परिज्ञान हो गया है अत: अपने ज्ञाता दृष्टा स्वभाव का ही निरंतर अधिक से अधिक अवलंबन लेने का प्रयास पुरूषार्थ करता है। मालारोहण ग्रंथ और इस अध्यात्म दर्शन टीका में आत्मनिष्ठ साधक आध्यात्मिक संत, दशम प्रतिमाधारी पूज्य श्री स्वामी ज्ञानानंद जी महाराज ने ज्ञानी के इसी पुरुषार्थ और साधना के मार्ग को स्पष्ट किया है। इसके लिए मूल मंत्र हैं- भेदज्ञान और तत्व निर्णय, जो मोक्षमार्ग की साधना के आधारभूत मंत्र हैं। भेदज्ञान - इस शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं। तत्व निर्णय - जिस समय जिस जीव का जिस द्रव्य का जैसा जो कुछ होना है, वह अपनी तत्समय की योग्यता अनुसार हो रहा है और होगा इसे कोई टाल फेर बदल सकता नहीं। यह दोनों मंत्र मालारोहण ग्रंथ की क्रमश: तीसरी और पांचवीं गाथा के सार सूत्र हैं, जो पूज्य श्री ने अपनी भाषा में हमें बताकर महान उपकार किया है। इन दोनों सूत्रों की साधना अपनी अपनी भूमिका में स्थित ज्ञानी जनों के जीवन में होती है। इसी आधार पर साधक का मोक्षमार्ग प्रशस्त होता है। "सम्यक् दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: " सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग है। रत्नत्रय की इन श्रेणियों पर आरोहण करना, स्थित होना ही मालारोहण है। यही 7 मालारोहण जीव को संसार से मुक्त होने का एक मात्र उपाय है। साधक की साधना के अंतर्गत इस ग्रंथ में सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की शुद्धि का विशेष महत्व बताया गया है। श्रद्धान की निर्मलता, अपने आत्म स्वरूप के अनुभव प्रमाण बोध पूर्वक होना, श्रद्धान में कोई दोष न लगना। स्व-पर का यथार्थ निर्णय, संशय, विभ्रम, विमोह रहित करना सम्यक्ज्ञान है। अपना और पर के स्वरूप का यथार्थ निर्णय, इसमें जो दोष लगते हैं उन्हें वस्तु स्वरूप, भेदज्ञान तत्वनिर्णय पूर्वक दूर करना तथा चारित्र की साधना, शुद्ध सम्यक्चारित्र का पालन द्रव्य दृष्टि की सिद्धि यही रत्नत्रय का वास्तविक पालन है और रत्नत्रय की शुद्धि पूर्वक ही ज्ञानी सच्चा मोक्षमार्गी (तारण पंथी ) होता है। सम्यक् दृष्टि ज्ञानी अभेद अविनाशी अखण्ड स्वरूप की साधना करता है, वह ध्रुव धाम का आराधक होता है। अपने पूर्ण स्वभाव का लक्ष्य है किन्तु स्वरूप में पूर्णत: लीन नहीं रह पाता है इस कारण भेद रूप साधन में भी पचहत्तर गुणों के माध्यम से अपने सत्स्वरूप की ही आराधना करता है। पचहत्तर गुण- देव के पांच गुण- पांच परमेष्ठी, गुरु के तीन गुण- तीन रत्नत्रय, शास्त्र के चार गुण-चार अनुयोग, सिद्ध के आठ गुण, सोलह कारण भावना, दशलक्षण धर्म, सम्यक् दर्शन के आठ अंग, सम्यक् ज्ञान के आठ अंग, और तेरह प्रकार का चारित्र । इन पचहत्तर गुणों के द्वारा ज्ञानी अपने सत्स्वरूप शुद्धात्मा की ज्ञान गुण माला को गूंथता है। " देवं गुरं सास्त्र गुनानि नेत्वं सिद्धं गुनं सोलहकारनेत्वं । धर्म गुनं दर्सन न्यान चरनं मालाब गुथतं गुन सत्स्वरूपं ॥ ॥ मालारोहण गाथा - ११ ॥ , आत्मा चैतन्य स्वरूप पूर्ण आनंद का नाथ अनंत शक्तियों का भंडार है, आत्म चिंतन और अनुभव पूर्वक अपनी आत्म ज्ञान गुण माला को गूंथना यही ज्ञानी का पुरुषार्थ है। संयम के मार्ग में आत्म कल्याणार्थी साधक स्व-पर के ज्ञान पूर्वक ग्यारह प्रतिमाओं का पालन और साधु पद में अट्ठाईस मूल गुणों का पालन करते हैं, ज्ञान मयी चैतन्य स्वभाव में चित्त लगाते हैं, तप, दान, शील का पालन करते हैं, यही शुद्ध सम्यक्त्व पूर्वक ज्ञान गुण माला के दर्शन अनुभव का विधान है। 8

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