Book Title: Mahavira Bhagavana
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

View full book text
Previous | Next

Page 263
________________ श्वेताम्बरकी उत्पत्ति। २३६ उपस्थित नहीं हुआ था। बल्कि एक दीर्घकाल पश्चात् भगवानका पावन संच दिगंबर और श्वेताम्बर संप्रदायोंमें विभक्त होगया था। बौद्धग्रन्थोमें साधारण रीतिपर लिख दिया गया है कि भगवानके निर्वाण लाभके पश्चात् संघ प्रथक् प्रथक् होगया इससे यह भाव प्रतीत नहीं होता है कि फौरन ही फूट होकर दो सम्प्रदाय होगए। अन्तमें डॉ० हॉर्नल साहब ( Dr. Hoennle ) ने इस विषयको निन्नप्रकार साफ शब्दोंमें प्रगट कर दिया है:___ "महावीरस्वामीकी निर्वाणप्राप्ति पश्चात् दूसरी शताब्दिमें, अनुमानतः ईसासे पहिले ३१ में, मगधदेश (वर्तमान बिहार )में एक बारह वर्षका दीर्थ दुष्काल पड़ा था। उस समय उस देशके अधिपति मौर्यवंशके चन्द्रगुप्त थे। और भद्रबाहु उस समय तक अखण्ड जैनधर्मके नायक थे। दुष्कालके दुष्प्रभावके कारण भद्रबाहु अपने कुछ मनुप्योके साथ दक्षिण भारतके कर्णाटक प्रदेशकी ओर प्रस्थान कर गए थे। संघके जो अवशेष मनुष्य मगधमें रहे थे, उनके नायक स्थूलभद्र हुए। दुष्कालके अन्तके निकट, नद्रवाहुके परोक्षमें, पाटलीपुत्र (पटना) में एक सम्मेलन सम्मिलित हुआ था। जिसमें जैन धर्मके ११ अङ्ग और १४ पूर्व नामक पवित्र ग्रन्थ संग्रहीत हुए थे, जो उपरांतमें १२ वा अंग कहलाये - जो जो कठिनाईया दकालमें सामने आई. उनसे जैनियोंके आचार पालनमें भी फरक पड गया । मुनियोंकी वेष भूषाके विषयमे यह नियम था कि चे बिल्कुल नग्न रहें, यद्यपि नीचेके चारित्र धारण करने वाले साधुओंके लिए कुछ वस्त्रोंक रखनेका नियम होना प्रतीत ये श्वेताम्बर आनायके आगम अंथ हैं। - -

Loading...

Page Navigation
1 ... 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309