Book Title: Mahavira Bhagavana
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 305
________________ AAAAAWONNNN परिशिवन आसन छोड़ उपक्रम कर रहे थे और तीव्र तपस्यामें प्रवृत्त थे। है महानाम, मैं शायंकालके समय उन निग्रन्थोंके पास गया और उनसे बोला 'अहो निम्रन्थ । तुम आसन छोड़ उपक्रम कर क्यों ऐसी घोर तपस्याकी वेदनाका अनुभव कर रहे हो ? हे महानाम, नब मैंने उनसे ऐसा कहा तब वे निर्ग्रन्थ इस प्रकार बोले 'अहो, निग्रन्थ ज्ञातपुत्र सर्वज्ञ और सर्वदशी है, वे अशेष ज्ञान और दर्शनके ज्ञाता हैं। हमारे चलते, ठहरते, सोते, नागते समस्त अवस्थाओंमें सदैव उनका ज्ञान और दर्शन उपस्थित रहता है। उन्होंने कहा है:-निर्यन्यो ! तुमने पूर्व (जन्म) में पापकर्म किये हैं, उनकी इस घोर दुश्चर तपस्यासे निर्नरा कर डालो। मन, वचन और कायकी संवृत्तिसे (नये ) पाप नहीं बंधते और तपस्यासे पुराने पापोंका व्यय हो जाता है। इस प्रकार नये पापोंके रुक नानेसे और पुराने पापोंके व्ययसे आयति रुक जाती है, आयति रुक जानेसे कर्मोका, क्षय होता है, कर्मक्षयसे दुक्खक्षय होता है, दुक्ख क्षयसे वेदना-क्षय और वेदना क्षयसे सर्व दुःखोंकी निरा हो जाती ।" इस पर बुद्ध कहते हैं । यह कथन हमारे लिये रुचिकर प्रतीत होता है और हमारे मनको ठीक जंचता है।' ऐसा ही प्रसङ्ग 'माज्झिमनिकायमें भी एक जगह और भाया है । P. T. S. Majjhima Vol II PP. 214-218 वहां भी निर्यन्योंने बुद्धसे ज्ञात पुत्र (महावीर) के सर्वज्ञ होनेको बात कही और उनके उपदिष्ट कर्म-सिद्धान्तका कथन किया। तिसपर बुद्धने फिर उपयुक्त शब्दोंमें ही अपनी रुचि और अनुकूलता प्रगट की।

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