Book Title: Mahavira Bhagavana
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 300
________________ ર #1 भगवान महावीर । परिशिष्ट नं० २० बुद्ध - महावीर | 1 इस विषयमें मि० के० जी० मशरूवाला के विचार भी हम · कि " बुद्ध और 1 + 1 1 # " पठनार्थ उपस्थित करते हैं । आप लिखते हैं महावीर ये आयकी प्रकृतिके दो भिन्न स्वरूप हैं । जगतमें जो सुख और दुःखका सर्वको अनुभव होता है वह सत्कर्म और दुष्कर्मके परिणाम रूप है ऐसा स्पष्ट जाना जाता है। जो सुख अथवा दुःखका कारण ढूंढ नहीं सकता, वह किसी समय कृत कर्मका ही परिणाम हो सत्ता है । मैं कमी नहीं था और कमी नही होऊँगा, यह कभी मुझे प्रतीत होता नहीं। इसपरसे हमें देखना चाहिए कि हम गत जन्ममें क्या थे और मृत्युके पश्चात् भविष्य जन्ममें क्या होंगे । गत समय मैंने कर्म किये थे और वह ही इस जन्मके सुख दुखके कारण होना चाहिए । घड़ीका लटकन जिस प्रकार इबरसे उबर चलता रहता है, उसी प्रकार मैं जन्म और मरणके मध्य झूलनेवाला नीव हूं । कर्मकी चाबी करके | यह लटकन सदृश गति मिली है और जबतक यह चावी लगी रहेगी तबतक मैं इस झूले से निकल नही सक्ता । यह झूलेकी स्थिति दुःखकारक है । इसमें कमी ही सुखका अनुभव होता है, परन्तु वह अत्यन्त क्षणिक है । यह इतना ही नहीं वल्कि इससे आघात पहुंचता है । इसलिए परिणाम मे दुखरूप है। गुझे इस दुखकारक झूलेमेंसे छूटना चाहिए। किसी भी प्रकारसे मुझे इस चावी फेर हटाना चाहिए। इस प्रकारst विचार श्रेणीसे प्रेरित हो कि आर्यगण जन्ममरणके से छूटनेके लिए -मोक्ष

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