Book Title: Mahavira Bhagavana
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 295
________________ - ' जीवनसे प्राप्त प्रगट शिक्षाएँ। २९७ . इसलिए भगवानके दिव्योपदेशसे साम्यभावको अपनाकर हमें उसके महत्वको दिगन्तव्यापी बनानेके लिए आपसी द्वेषोंको गौण करके उनको भूला करके भगवानकी सुधासम वाणीका पान प्रत्येक पिपासी आत्माको कराना चाहिए, और विश्वप्रेमके सुभग रज्जुमें बंधकर मानवोन्नतिमें अग्रसर होना चाहिए जरा २ से मतभेदको द्वेषों परिणित करनेके स्थानमें उनके मूल कारणको ढूंढ़ना लाभकारी है । अतएव प्रत्येकको भगवानके जीवनसे यथेच्छ लाम प्राप्त होसका है यह प्रगट है । जिस सार्वभौमिक साम्यभावकी आवश्यकता आज संसारको है उसका पाठ भगवानके दिव्योपदेशसे मिल रहा है। मात्र समझनेवालोंकी दिशाभूल है। उसको दूर करना ही 'वीरभक्तों का सच्चा कर्तव्य है। अस्तु । अन्तमें पाठको ! स्वपर कल्याणकारक, परम हितैषी, सर्वज्ञ परमात्मा 'वीर' जिनका स्मरण हृदयमें करते हुए पवित्रात्माके निम्न शब्दोंका उल्लेख करके आपसे बिदा होते हैं, परन्तु एक दूसरेसे अलग होनेके पहिले आइए भगवानके दिव्य प्रकाशको प्राप्त करनेकी भावना भालें। अस्तु, एवम् भवतु । ___वर्गासीन आत्मा जब अपने पौगलिक शरीरमें थी, तब सुमसिद्ध श्रीयुत शिववृतलालजी वर्मन् एम० ए० संपादक "साधू" " सरखतीमंडार " इत्यादिके रूपमें अपने पवित्र उद्वार इस प्रकार प्रकट कर गई " गए दोनों जहान नज़रसे गुजर । तैरे हुनका कोई वशर न मिला "

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