Book Title: Mahavira Bhagavana
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 288
________________ २६० . भगवान महावीर।.. '. इसलिए मनुष्यने साक्षात् अमृतको पा लिया है। अब उसका कर्तव्य है कि उसका सदुपयोग करनेके लिए संयमका आश्रय ले और अपने जीवनको सार्थक बनावे, स्वस्वरूपामृतका पान करे, बाह्य दिखावटी बातोंमें न फंसे, इन्द्रियोंकी विषयपुर्तिमें अपने जीवनके अमूल्य दिवस नष्ट न करदे, अपनी इच्छाओंको सीमित करता चले, और जो बातें अपनेको प्रिय समझे, वही दूसरे. प्राणियोंके लिए भी चाहे वे कितनी भी नीच अवस्थामें क्यों न हों-प्रिय समझे । इसलिए पशुओंकी हत्या न करे। उन्हें और अपने साथी भाईयोंको यथाशक्ति मन, वचन, काय द्वारा कष्ट न ' दे, उनके जीवनको कष्टमय 'न बनाए । यदि होसके तो उनके कष्टोंको दूर हटानेका प्रयत्न करे। सदैव अपनी आत्मोन्नतिका ध्यान रखे। अपनी आत्मामें ही अपूर्व सुख, शांति, और वीर्यके भण्डारको खोजनेका प्रयत्न करे। अपनी आत्माको विना जाने और समझे कोई भी मनुष्य सत्पथ-संयमका अनुसरण नही करसका। इसलिए अपनी आत्माका ध्यान रक्खे । भगवान महावीरके जीवनका साधारण अक्स हमारे हृदयपर उक्त प्रकार पड़ता है। अनुपम नर जन्म पाकर उसको सफल बनाना हमारा परमोपादेय कर्तव्य झलकता है । अस्तु। " नरजन्म अनूपम पाय अहो, अव ही परमादनको हरिये। सरवज्ञ अराग अदोपितको; धर्मामृतपान सदा करिये ॥ अपने घटको पट खोल सुनो, अनुमौ रसरंग हिये धरिये । भवि वृन्द यही परमारथकी, करनी करि मौ तरनी तरिये ॥" अन्यया अमृतको पाकर विषयवासनाती. कांजड़में बेहद -

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