Book Title: Mahavir 1933 04 to 07 Varsh 01 Ank 01 to 04
Author(s): C P Singhi and Others
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan
View full book text
________________
२२ 1
महावीर की सेवा में अर्पण किया। योगिराज ने कहा "संघ जो कुछ कर रहा है वह ठीक है, किन्तु में तो इन उपाधियों को उपाधि ( व्याधि ) रूप ही मानता हूं। मैं जो चाहता हूँ वह देने में कोई समर्थ नहीं है उसे तो आत्मा देर सबेर स्वयम् प्राप्त कर सकेगा। आप मेरे नाम के पीछे पूंछ लगा कर मुझे क्यों परेशानी में डालते हो। जिन सत्कर्मों के उपलक्ष में उपाधियाँ दी जाती हैं उन कर्मों का प्रायः ये उपाधियां स्वीकार करने से विक्रय सा हो जाता है । अनिच्छा होते हुए भी बलात उपाधि का बोझ लादना उचित नहीं है। यह खदर का कपड़ा जो आपने दिया है इसे आप विद्या की झोली समझिये और गुरुकुल के लिये दस पांच लाख इकट्ठा करके ज्ञान वृद्धि कर समाज में प्रादश युवक पैदा कीजिये। हिंसा को रोकिये। हाथी दांत का चूड़ा छोड़िये। विश्व प्रेम सीखिये।"
तीसरा 'अभिनंदन एवं उपाधि समर्पण पत्र' पन्यासजी श्री ललितविजयजी महाराज की सेवा में अर्पण किया गया । इसे श्रीमान् दृढाजी ने पढ़ा और पन्यासजी को भेट किया। संघ ने आपके द्वारा विद्या प्रचार के कार्य से प्रसन्नता दिखलाते हुए आपकी सेवा में अभिनन्दन पत्र दिया और आपको "प्रखर शिक्षा प्रचारक मरुधरोद्धारक" विरुद अर्पण किया। उसके लिये उपस्थित जनता ने 'जय घोष' करके हार्दिक प्रसन्नता प्रकट की।
आचार्य श्री ने अभिनन्दन पत्र का उत्तर बड़ी योग्यता के साथ दिया । आपने बहुत लम्बा भाषण किया जिसका सार यही है कि 'आप श्री संघ ने उदारता के साथ जो उपाधि प्रदान की है मैं इसके लिये आप श्री संघ का आभारी हूँ, परन्तु मैं इस वस्तु के लायक अपने को किसी हालत में भी मानने को तैयार नहीं हैं। इतना बड़ा भार मुझ पर लादना श्री संघ को योग्य नहीं है। मैं श्री संघ को अधिक कहूं यह मेरे अधिकार के बाहर है। इसलिये यदि श्री संघ इसी काम में राजी है तो मैं इतना जरूर ही कहूंगा कि यदि आपने अपने समाज में से अविद्या रूप अन्धकार को दूर करके प्रकाश डाल दिया और अशांति को दूर करके शांति का साम्राज्य स्थापन कर दिया तब तो आपकी बनी हुई उपाधि किसी रूप में सफल मानी जायगी अन्यथा आपकी दी हुई उपाधि वाकई मेरे लिये एक कर्म बन्ध की तो उपाधि हो जायगी । इसलिये जैसे मैं आपकी बक्षी हुई उपाधि को आप श्री संघ के मान की खातिर बिना इच्छा के भी स्वीकार कर