Book Title: Mahavir 1933 04 to 07 Varsh 01 Ank 01 to 04
Author(s): C P Singhi and Others
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan

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Page 104
________________ (१२) निर्जल शरीर वालों के लिये इस लोक में या परलोक में उच्च स्थान नहीं हैं। शरीर के आरोग्य के लिये, दीर्घ आयुष्य के लिये, आत्म रक्षण के लिये और वीर्यवान जैन प्रजा बनाने के लिये शारीरिक विकास की परम आवश्यकता है और इस हेतु के लिये स्थान २ पर व्यायामशालाओं की स्थापना की परम आवश्यकता है। मानसिक शिक्षा ऐसी होनी चाहिये जिससे बुद्धि का विकास हो, मन उदार हो और सार्गजिक ज्ञान का संचार हो जिससे हम देश और समाज की शुद्ध सेवा करने योग्य बनें। आजकल जिस ढंग से धार्मिक शिक्षा दी जाती और पाठशालाएँ चलाई जाती हैं, वह बिलकुल वाञ्छनीय नहीं है। केवल धार्मिक सूत्रों का रटन हमारे बालकों को धर्म के गहन तत्त्व या रहस्य का ज्ञान नहीं दे सकेंगे । सूत्रों के अभ्यास उपरान्त जैनों के सर्व अंगों का प्राचीन एवं अर्वाचीन इतिहास और क्रियाकाण्ड के रहस्य का सम्पूर्ण और रसमय ज्ञान अपने बालकों को देने की आवश्यकता है। शिक्षक गण केवल कल्दार के उपासक नहीं परन्तु ज्ञानवान एवं उदार दृष्टि वाले योजना चाहिये की जिससे धार्मिक शिक्षा का आदर्श फलीभूत हो और अपने आज के बालक भविष्य के सच्चे जैनी बनें । समय और परिस्थिति प्रतिकूल होने पर भी जैन दानवीर हैं; वे सखावतें कर सकते हैं । परंतु खेद की बात है कि हमारे में, सर्जकत्व के अभाव में, सच्ची दिशाओं में धन का व्यय नहीं होगहा है। सच्चे नेतृत्व की कमी के कारण हम हमारे दान के प्रवाह को नहीं बदल सकते हैं । इससे बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी जैसा विश्वविद्यालय स्थापित करने की साधन संपन्नता हमारे में होते हुए भी हम नहीं जैन यूनिवर्सिटी स्थापित कर सकते हैं न कालिजें । कहीं २ जैन हाईस्कूलें देखने से आती हैं लेकिन वे नाम मात्र की ही हैं। वहाँ सच्चे जैन नागरिक बनाने की शिक्षा दी ही नहीं जाती अपन आशा करते हैं कि निकट भविष्य में अपने जैन नाम को सार्थक करनेवाली हाईस्कूलें एवं कालिजें कायम हों। . जैन बालकों को आवश्यक शिक्षा प्रदान को जाय । इस संबंध में पारसी जाति एवं आर्य समाज द्वारा देश भर में स्थापित की हुई संस्थाएँ कैसा सुंदर और ठोस कार्य कर रहीं हैं उसका अनुकरण करने की मैं आपसे सूचना करता हूँ। जैन बालकें आज ज्ञान के लिये तरसते हैं; ज्ञान प्राप्ति के साधनों के अभाव में उनके जीवन का मूल्य फूटी कौड़ी के जैसा हो रहा है; उनको घर २ टुकड़े माँगने की; आजीविकाके लिए कनिष्ट नौकरियें करने की और अधम प्रकार के जीवन को व्यतीत करने की विवशता होती है । इतने पर भी, यह करुण दृश्य अपने नेत्रों से देखते हुए भी, जाति के नेतागण अपनी प्रमाद निद्रा का परित्याग नहीं करते । आज हमारे समाज में आदर्श छात्रालयों की बड़ी आवश्यकता है । जहाँ उन्हें शिक्षा के सर्व साधन सरलता से उपलब्ध हों; जहाँ उनपर, वचपन से ही, अच्छे संस्कार पड़ें और भविष्य में, वे, अपना जीवनमार्ग निडरता सरलता एवं बुद्धिमत्ता से काट सकें। ऐसे छात्रालय हर

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