Book Title: Mahavir 1933 04 to 07 Varsh 01 Ank 01 to 04
Author(s): C P Singhi and Others
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan

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Page 97
________________ कारण है । दशा, वीसा, पाँचा, अढ़ीया, एका तथा नीमा बगेरा तड़ भी हैं और वे भी गुजरात में ही हैं। उपरान्त सुरती, अहमदाबादी, भावनगरी वगेरा शहरों के नामों पर से भी पोरवाड़ों में ज्ञाति-भेद अस्तित्व में आये हैं। ..... . . ऐसी महान् पोरवाड़ ज्ञाति जो पूर्व काल में द्रव्यवान और समृद्धिशालिनी थी; जिस ज्ञाति में महान् मुत्सद्दी (राजनीतिज्ञ), विख्यात विद्वान्, मशहूर राजकारण के ज्ञातागण, अनुपम देशसंरक्षकगण और समाजहितचिन्तक नर हुए हैं, उसकी वर्तमान में क्या स्थिति है इस बात का गंभीर विचार करने की परम आवश्यक्ता है ।। ___ आज के जैसे सम्मेलन यानी परिषद की इस समय अनिवार्य आवश्यक्ता है, यह निर्विवाद बात है। संसार के प्रति दृष्टिपात करने पर अपने को यही प्रत्युत्तर मिलता है। संसार के अनादि काल से हरेक युग में परिवर्तन हुआ ही करता है। आधुनिक युग के वातावरण को देखने से मालूम होता है कि हरेक देश में अजीब फेरफार अलौकिक जागृति और अद्भुत प्रगति के आन्दोलन उठ रहे हैं । हरेक समाज अपने सड़े हुए अंगों का पुनरु द्वार करने में लगा हुआ है । प्राचीन प्रणालिकाएं, उनकी सत्त्वहीनता के कारण, अपने आप हो नष्ट होती हैं। जड़वाद की जगह बुद्विवाद - के दर्शन हो रहे हैं और जनता, गतानुगतिकता का परित्याग कर, सच्चो स्वाधीनता की उपासिका बनती जा रही है । इस युग का प्रभाव प्रजा के राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सामाजिक जीवन पर पूर्णतया पड़ चुका जिसके परिणाम स्वरूप प्रजा के विचारों में, रहन सहन में और मन्तव्यों में बड़ा भारी परिवर्तन देखने में आता है। प्रत्येक राष्ट्र या समाज को इच्छा या अनिच्छा से, इस विराट परिवर्तन को मानना पड़ता है। क्योंकि उसमें प्रजा के जीवनमरण का संबंध लगा हुआ है । जागृति के इस प्रबल प्रवाह से प्रफुल्लित होकर अनेक समाजें अपना संगठन साधने और नवजीवन प्राप्त करने के लिए भगीरथ प्रयास कर ऐसे अमूल्य समय में, जैन समाज को भी, अपने प्रमाद को त्यागकर, जाप्रत होने की आवश्यकता है। जैनों का गौरव यह आजकल का विषय नहीं है। इसका प्रतिभाशाली एवं ज्वलंत इतिहास जगत् के साथ ही शुरू होता है। इस धर्म के अचल, अबाधित एवं अद्वितीय सिद्धान्त जगत् के लिये दिव्य उत्तराधिकार रूप हैं। पाश्चात्य प्रजाएँ, घोर रण संग्रामों से उकता कर, इसका आश्रय ग्रहण करने के लिये तत्पर बनी हैं । महात्मा गान्धीजी ने, उन्हीं सिद्धान्तों को जगत् के सामने रख कर और अहिंसा का दिग्विजय कर दिखला कर जैन धर्म के अनुयायी समूह पर बड़ा भारी उपकार किया है । इस परसे मालूम होता है कि एक समय में जैन धर्म विश्वधर्म था और फिर भी वह विश्वधर्म होने की योग्यता रखता है । जैन-समाज को इस अमूल्य अवसर से पूरा २ लाभ उठाना चाहिये ।

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