Book Title: Mahavir 1933 04 to 07 Varsh 01 Ank 01 to 04
Author(s): C P Singhi and Others
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan
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- भारतवर्ष, प्राचीन काल में, अत्यन्त सत्यनिष्ठावान्, सदाचारसंपन्न एवं सुधारणा या संस्कृति की परिसीमा पर पहुँचा हुआ देश था । जब कि आज वही भारत अनेक प्रकार की खरावियों में डूबा हुआ, अनेक वर्षों में विभक्त हुआ और अनिष्ट प्रथाओं की दासता से जकड़ा हुआ दृष्टिगोचर होता है। देश-काल के बदलने पर मनुष्य के आचार विचार भी बदलते हैं । केवल कुदरत के कानून ( नियम ) अचल एवं अबाधित रहते हैं। अनेक व्यक्तिएं परस्पर के सहयोग से सुखमय जीवन व्यतीत करने के लिये एकत्र होती हैं, उसी का दूसरा नाम समाज है । और उस समाज को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिये नियम बनाये जाते हैं। उन नियमों में से, कुप्रथा के रूप में परिणत हुए, अनिष्ट तत्वों को समाज समय २ पर दूर करता है। क्योंकि कायदे, नियम और रूढियें मनुष्यकृत हैं और मनुष्य के लिये फायदेमंद है। इसलिये जब वे कायदे, रूढियें नियमें मनुष्य जाति का हित करने की बनिस्पत अहित करने की वृत्ति दीखाया हैं, तब उन्हें तत्क्षण रद्द करने का मनुष्य मात्र की फर्ज हो जाता है । कुदरत का नियम है कि वहने वाला पानी निर्मल यानी स्वच्छ रहता है । छोटे से खड्ड में भरा हुआ पानी झट से सड़ जाता है। वह गन्दा, बदबू मारने वाला और वर्ण्य होता है। जैसे राजनैतिक परिस्थिति के बारे में प्रथम राजसत्ता, पीछे नियंत्रित राजसत्ता और अंत में प्रजासत्ताके परिवर्तन हुए ही करते हैं उसी प्रकार देश की आर्थिक, सामाजिक एवं धार्मिक बाबतों में अनेक परिवर्तन और क्रान्तिएं हुई हैं और होती जाती हैं।
इस नियम को लक्ष में रखकर हम को अपने जैनसमाज का विचार करना चहिये । श्री महावीर देव के जीवन काल में अपन करोंड़ों की संख्या में थे । सम्राट अकबर शाह के समय में चालीस लाख संख्या में थे । देश भर में हमारे नकारे बजवा सकते थे । हम अपनी मर्जी माफिक करा सकते थे । अपने में श्रीमद् हीरविजयसूरि और
और हरिभद्रसूरि जैसे अनेक प्रतिभाशाली शासनस्तम्भ और बादशाहों को प्रतिबोध कर सकें ऐसे आचार्य एवं मुनिपुंगव गण थे । भामाशाह के जैसे अडग देश भक्त थे; जावड शाह के जैसे तीर्थ के उद्धारक थे; विमलशा, वस्तुपाल, तेजपाल और मुंजाल जैसे महान् मुत्सद्दी थे । अपने तीर्थस्थान जाज्वल्यमान एवं सुरक्षित थे। उस समय अपने में एकता, संगठन, हृदय की निष्कपटता, सच्ची धर्म भावना और समाज के लिये सच्ची सहानुभूति थी। अपन सच्चा स्वामीवात्सल्य करना जानते थे । अाज अपन कैसी परिस्थिति में पड़े हुए हैं ? अनेक फिरके, ज्ञातियें और तडों के कारण अपन आज छिन्न-भिन्न हो रहे हैं । द्रव्यहीन एवं विद्याहीन होते हुए अपन पामर दशा को प्राप्त हो रहे हैं । अपने समाज को प्राणघातक दर्द लागू पड़ा है । अपनी जनसंख्या दिन ब दिन घटती जा रही है। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि अपन मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक अवनति की गहन गों में डूबते जा रहे हैं। इस व्याधि के निदान की आवश्यक्ता है । उसकी तात्कालिक