Book Title: Mahavir 1933 04 to 07 Varsh 01 Ank 01 to 04
Author(s): C P Singhi and Others
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan

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Page 99
________________ चिकित्सा कर बड़े से बड़े उपाय काम में लेने की परम आवश्यकता है। धर्म प्रेमी एवं समाज-हित-चिन्तक का यह परम कर्तव्य है । आधुनिक युग यह संक्रान्ति काल है इस लिए यदि इस उपाय को इसी समय में काम में नहीं लिया जायगा तो भविष्य में ऐसा अनुपम अवसर मिलना दुर्लभ है। अत्यन्त खेद की बात है कि अपन अपरिमित निरक्षरता एवं अज्ञानावस्था के कारण संकुचित विचारों की श्रृंखलाओं से जकड़े हुए हैं और सब प्रकार की दीर्घदृष्टि गुमा बैठे हैं। सिर्फ यही नहीं, हम सामाजिक एवं धार्मिक मन्तव्यों का शंभुमेलाही कर रहे हैं । जब २ सामाजिक सुधारणा एवं प्रगति की बातें होती हैं, तब २ धर्म के बहाने से उसके मार्ग में विघ्न उपस्थित किये जाते हैं और उसका विरोध करने में आता है। इन कार्यों से धर्म में हस्तक्षेप होता है' यों कह कर पोकार किये जाते हैं। इसलिये धर्म और समाज के क्षेत्र किस जगह अलग पड़ते हैं, उसके ज्ञान का प्रचार करने की बड़ी भारी आवश्यक्ता है। __ हमारे पोरवाड़-समाज में जो २ कुरूढियें फैली हुई हैं और जो समाज के अन्तस्तल को काट रही हैं, उनमें बालविवाह की प्रथा मुख्य है। प्राचीन भारत में ब्रह्मचर्य का पूरा पालन किये जाने के बाद ही गृहस्थाश्रम का स्वीकार किया जाता था । पुरातन युग में धी ( बुद्धि या शिक्षा ), श्री ( लक्ष्मी ) और स्त्री (विवाह ) का जो उत्तम क्रम बंधा हुआ था, वह आज बिल्कुल उल्टे रूप में ही प्रतीत होता है । बालविवाह की प्रथा मुसलमानों के शासन काल से ही प्रचलित हुई है । आज उस काल की सी देश की परिस्थिति नहीं है । आधुनिक युग शान्ति का युग है इसलिए अब उस प्रथा को सर्वथा मिटा देना ही आवश्यक है । भावि प्रजा के सत्त्व का शोषण करने वाली उस कुप्रथा को कानून का स्वरूप दिलाने के लिये श्रीमान् हरबिलास शारदा को धन्यवाद देना चाहिये । और हम दृढ़ भासा रखते हैं कि श्रीमंत महाराजा गायकवाड़ की तरह भारत की अन्य तमाम देशी रियासतों में बालविवाह निषेधक कानून जारी किया जायगा । हमारे समाज की दूसरी कुप्रथा वृद्ध विवाह की है। हमारे धर्म एवं नीति के सिद्धान्त पश्चिम से बिल्कुल ही भिन्न प्रकार के हैं । अमुक अवस्था के बाद समाज के व्यक्ति, पारमार्थिक जीवन बिताने के लिए तत्पर हों और देश, धर्म एवं समाज के लिये अपने सर्वस्व का बलिदान दें, यह अतीव आवश्यक है । इससे ऐसी अवस्था मुकर्रर होनी चाहिये जब कि विवाह करने का विचार भी लज्जा-जनक एवं अधर्म माना जाय । कन्याविक्रय की राक्षसी प्रथा अब समय के प्रवाह के साथ सर्वथा बंद होनी चाहिये । उसी प्रकार उसका वर विक्रय के सुधरे हुए रूप में परिवर्तन न हो, इस बात का भी खयाल रखने की पूरी आवश्यक्ता है। विवाह के अवसर पर,हमारे धनवान सज्जन, फिजूल खर्ची कर अपने वैभव, महत्ता एवं प्रतिष्ठा का प्रदर्शन कर दिखाते हैं। समाज के मध्यम और गरीब वर्ग को भो, झूठी प्रतिष्ठा

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