Book Title: Mahavir 1933 04 to 07 Varsh 01 Ank 01 to 04
Author(s): C P Singhi and Others
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan
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( ८ ) के मोह में पड़ कर, उनके पीछे २ बर्बाद होना पड़ता है। बरसों तक बड़े परिश्रम से उपार्जित किये हुए द्रव्य की, खोटी वाह वाही के लिये, बर्बादी की जाती है । धनवानों को चाहिये कि जन-समाज के हित के खातिर वे अपने कार्य सादगी के साथ करें; आडम्बर को बन्द कर देवें । उन्हें अपनी लक्ष्मी का व्यय सत्कार्यों में करना चाहिये । मृत देह के पीछे रोने-पीटने एवं मिष्टान्न भोजन करने की प्रथा भी उतनी ही अनिष्ट है । ऐसी सव कुरूढियों के मिटाने के लिये हमको शक्ति-भर प्रयास करने की आवश्यकता है।
- ये तमाम कुप्रथाएँ जैन सिद्धान्त से बिलकुल विपरीत हैं। लेकिन खेद के साथ कहना पड़ता है कि, इस विषय पर अनेक बार विवेचन हो चुकने पर भी हमारे समाज में अनेक जगह वे मौजूद हैं । समाज इन कुरूढियों से मुक्त नहीं होने की वजह से वह सभ्य संसार में सर्वत्र हास्यास्पद बन रहा है । जिसके घर में किसी की मृत्यु हो या किसी संबंधी का चिरवियोग हो, उसके यहाँ जाकर संवेदना प्रकट करना और उसको सर्व प्रकार से सहायता पहुँचाना यह तो सगे संबंधियों का कर्तब्य है; परन्तु शोकातुर परिवार में जाकर मिष्टान्नादिक बनवा कर और उनके पाससे जाति भोज वगेरा कग कर मौज उड़ानी यह तो मानवता नही है बल्कि केवल राक्षसीवृत्ति ही है । ऐसी रूढ़ि किसी सभ्य समाज में देखने में नहीं आती। यहाँ विचार करने की आवश्यकता है कि एक तो घर में पति,पिता या पुत्र के अकाल मृत्यु से घर के लोग शोकसागर में डूबे हों और उसपर उनके मस्तक पर जातिवालों को मिष्टान्न भोजन जिमाने का बड़ा भारी बोझ आपड़े, तब उनकी क्या हालत हों ? जब किसी निर्धन परिवार में मृत्यु होती है तब तो उनके अपार शोक की सीमा ही नहीं रहती।
___ मैं पहले कह ही चुका हूँ कि हमारा समाज संख्या बल में हीन होने उपरान्त अनेक तड़ों या विभागों से छिन्नभिन्न हो रहा है। कुछ छोटी ज्ञातियों की व्यक्तियें तो अतिशय अल्पसंख्या में ही विद्यमान हैं। जो जैन धर्म जाति-भेद को पहचानता भी नहीं हैं, उसी धर्म के अनुयायियों को अतिशय उग्र एवं गुलामी जाति बन्धनों से जकड़ा हुआ देखकर किस सहृदय आत्मा को दुःख एवं कम्प न होगा ?
इस संबंध में हमारे समाज में कितनी निर्बलता फैली हुई है उसके प्रति मैं आपका लक्ष खींचना चाहता हूँ । संभव है, कुछ लोग मेरे विचारों से सहमत न हों। किन्तु इस प्रकार के सभा-सम्मेलनों का उद्देश्य यह होता है कि विचार विनियम के द्वारा मत-भेदों को दूर कर सर्व सामान्य प्रणालिकाएँ कायम कर उसके द्वारा समाज का हित-साधन करना।
अब मैं ऐसे विषय की चर्चा करना चाहता हूँ जिसकी समाज में अतीव आवश्यकता है । आज जैन-धर्म के अनुयायियों में महान् अन्तर पड़ गया है । बेटी-व्यवहार तो न सही लेकिन एक दूसरे के साथ बैठकर प्रेम से भोजन करने में भी हीनता मानी जाती है। इसका कारण धार्मिक एवं सामाजिक विचारों का अद्भुत मिश्रण ही है। जिन