Book Title: Kshama ke Swar Author(s): Chandraprabhsagar Publisher: Jain Shwetambar Shree Sangh Colkatta View full book textPage 5
________________ [ ख ] तथ्य स्पष्ट होने लगता है। जब तक मनुष्य में आन्तरिक परिवर्तन नहीं होता, विश्व की वर्तमान दुर्दशा में कोई परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। यदि व्यक्ति राग, द्वेषादि से समान रूप से पीड़ित है तो पुराने शासकों के स्थान पर नए शासक बैठा देने से या व्यवस्था में परिवर्तन कर देने से वास्तविक क्रान्ति घटित नहीं होती। बड़ी-बड़ी क्रान्तियों की विफलता का भी कारण यही रहा है। अतः व्यक्ति में आन्तरिक परिवर्तन महत्त्वपूर्ण है । क्षमा द्वेष का प्रतिपक्ष ( विरोधी ) है । युद्ध, कलह आदि उपद्रवों का कारण द्वेष, क्रोध आदि ही हैं । क्षमा के अभ्यास से इनका अपशम होता है । शान्ति, सहिष्णुता, मर्षण आदि इसके पर्याय हैं। आपतित दुःख, चाहे वह प्राकृतिक हो या व्याधिजन्य हो, उससे चित्तक्षोभ न होना, दूसरे द्वारा किये अपकार से उद्विग्न न होना, क्षमा है । वस्तुओं के स्वभाव पर, उनके परस्पर कार्यकारण भाव पर विचार करने से इस प्रकार की शान्ति का उत्पाद सम्भव है। उत्पन्न होने पर उसको चित्त में स्थिर करने के लिए अभ्यास करना चाहिए। मुनि चन्द्रप्रभसागर जी अभी युवा हैं। तेजस्वी और प्रतिभावान् हैं। इस क्षेत्र में उनसे बहुत आशाएँ हैं । हम उनकी उत्तरोत्तर अभ्युन्नति की आकांक्षा करते हैं। आचार्य शान्तिदेव के निम्न वचन से हम अपना वक्तव्य समाप्त करते हैं न च द्वेषसमं पापं न च क्षान्तिसमं तपः । तस्मात् क्षान्तिं प्रयत्नेन भावयेद् विविधैर्नयः ।। ( बोधिचर्यावतार, ६ /२) भवतु सर्वमंगलम् रामशंकर त्रिपाठी १९ अगस्त, श्रीकृष्णजन्माष्टमी १९८४ अध्यक्ष, श्रमण विद्यासंकाय एवं बौद्धदर्शन विभाग सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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