Book Title: Kshama ke Swar
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jain Shwetambar Shree Sangh Colkatta

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Page 29
________________ [ २४ ] क्रोध पर विजय प्राप्त की जाती है। क्षमा वह ढाल है, जो दूसरों के क्रोध रूपी वार को सहन करती है। पर, क्या स्वयं के वार को सहने में वह सक्षम है ? नहीं। जिसमें क्रोध है, उसमें क्षमा नहीं है। जिसमें क्षमा है, उसमें क्रोध नहीं है। दोनों का प्रयोग दूसरों के लिए होता है। क्षमा भी दसरों को की जाती है और क्रोध भी दसरों पर । दोनों की अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ता है। फिर भी आत्म-सिंहासन पर दोनों एक साथ नहीं बैठ सकते। दोनों में से किसी एक की स्थापना के लिए दसरे का उत्थापन अनिवार्य है। अतः जहाँ क्रोध है, वहाँ क्षमा नहीं है । जहाँ क्षमा है, वहाँ क्रोध नहीं है। जहाँ क्षमा के आलम्बन से अनेक भव्यात्माओं ने अपना उत्थान किया है, वहीं क्रोध के प्रभाव में आकर अनेक आत्माओं ने अपना पतन कर लिया था। यहाँ हम उनमें से कतिपय का संक्षिप्त उल्लेख करेंगे। (१) आचार्य स्कन्दक के ५०० शिष्यों को पालक द्वारा कोल्हू में तेल की तरह पेरवा दिया गया। सभी शिष्य मृत्यु के क्षणों में परम क्षमाशील बने रहे। उनकी आदर्श क्षमाशीलता ने उन्हें मोक्ष-धाम प्रदान किया। पालक ने स्कंदक को भी पेरवा दिया था। किन्तु स्कन्दक के मन में रोष पैदा हो गया। वे 'निदान' ( संकल्प ) पूर्वक मरे । उन्होंने एक देव के रूप में जन्म ग्रहण किया, और क्रोध के आवेश में उन्होंने १२ योजन दूर-दर तक उसके सारे राज्य को भष्म कर डाला।' इस तरह जहाँ शिष्यों ने क्षमाशीलता से अपना-आत्मकल्याण कर लिया, वहीं गुरु ने क्रोध के द्वारा अपनी आत्मा का पतन कर लिया। (२) आचार्य चण्डरुद्र के मस्तिष्क का पारा बहुत चढ़ा हुआ था। विहार के समय चण्डरुद्र अपने शिष्य सोम मुनि के कन्धे पर बैठे हुए जा रहे थे। सोम कंकरीले पथ के कारण बराबर चल नहीं पा रहा था। चण्डरुद्र ने उसके सिर पर प्रचण्ड मुष्टि प्रहार किये और कठोर वचन भी कहे, परन्तु सोम के मन में आकूलता उत्पन्न न हई। उनकी क्षमा-भावना श्रेष्ठ थी। उन्होंने चण्डरुद्र से पुनः पुनः क्षमा१. द्रष्टव्य--(क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ ७३ (ख) मरणसमाधि, ४४३,४६५ (ग) वृहत्कल्पभाष्य, ३२७२-४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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