Book Title: Kshama ke Swar
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jain Shwetambar Shree Sangh Colkatta

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Page 32
________________ . [ २७ ] को स्वभाव-दशा से विभाव-दशा में ले जाती है, और व्यक्ति को जन्म-मरण की श्रृंखला में आबद्ध कर देती है। क्रोध सामाजिक और आध्मात्मिक दोनों दृष्टिकोणों से हानिकर है। सामाजिक दृष्टि से क्रोध पारस्परिक सद्भाव का विनाशक है, तो आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा के निज-गुण समता का विघातक है। हमारे मनीषी कहते हैं क्रोधो मूलमर्यानां, क्रोधः संसारवर्द्धनः । धर्मक्षयकरः क्रोधस्तस्मात्क्रोधं विवर्जयेत् ।। अर्थात्-क्रोध अनर्थों का मूल, संसारवर्द्धक और धर्मक्षयकर है। अतः क्रोध का विवर्जन करना चाहिये । और भी क्रोधो नाशयते धैर्य, क्रोधो नाशयते श्रुतम् । क्रोधो नाशयते सर्व नास्ति क्रोधसमोरिपुः ॥ अर्थात-क्रोध धैर्य और श्रत (ज्ञान) का नाश करता है। वस्तुतः वह सब कुछ नाश कर देता है। अतः क्रोध के समान कोई शत्र नहीं है। सचमुच, क्रोध अनुचित है। क्षद्र व्यक्ति ही क्रोध करते हैं । अच्छे व्यक्ति क्रोध नहीं करते। उन्हें तो उससे घृणा होती हैं। जिस प्रकार जानकार व्यक्ति विषधर को अपने गले का हार बनाना लाभदायक नहीं समझता, उसी प्रकार विद्वत् जन क्रोध को प्रश्रय नहीं देते । क्रोध से आवेशित व्यक्ति सदैव गस्सैला | विषैला रहता है। उसकी वत्ति तामसिक होती है। वह अपने चित्त के सन्तुलन को खो बैठता है। यह अपने पर नियन्त्रण भी नहीं रख पाता, बात-बात में आपे से बाहर हो जाता है। ___ क्रोध का शमन क्रोध से नहीं होता। क्रोध के शमन के लिए अपरिहार्य रूप से आवश्यकता होती है क्षमा की। क्रोध में ऊष्णता होती है, तो क्षमा में शीतलता। क्रोध की ऊष्णता क्षमा की शीतलता से शान्त होती है । शान्त पुरुष ही क्षमावान् होता है। ____ क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार कषाय हैं । ये राग रूपी जंजीर की चार कड़िया हैं। चारों एक-दूसरे से आबद्ध हैं। एक का क्षय होने पर शेष भी अनुक्रमशः प्रक्षीण हो जाती हैं। शास्त्र कहते १. उद्धृत--संस्कृत श्लोक-संग्रह, ५३.१. २. वही, ५३५ ३. स्थानांग, चतुर्थ ठाणा, उद्देशक ४, सूत्र ३४९. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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