Book Title: Kshama ke Swar
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jain Shwetambar Shree Sangh Colkatta

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Page 41
________________ [ .३६ ] 'बच्चन' ने उत्तप्त न बनने की प्रेरणा दी है । उनका कथन है इतने मत उतप्त बनो । मेरे प्रति अन्याय हुआ है, ज्ञात हुआ मुझको जिस क्षण, करने लगा अग्नि-आनन हो, गुरु गर्जन, गुरुतर तर्जन-शीश हिलाकर दुनियाँ बोली, पृथ्वी पर हो चका बहुत यह, इतने मत उत्तप्त बनो।1 क्रोध की अग्नि भयंकर होने पर दावानल का रूप ग्रहण कर लेती है। क्रोध रूपी अग्नि को प्रतिक्रिया रूपी काष्ठ मिलता रहे, तो वह फैलती ही जाती है। तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा है, 'केहि कर हृदय क्रोध नहीं दाहा ?? अर्थात् क्रोध ने किसके हृदय को नहीं जलाया ! क्रोध सबको जलाता है। लेकिन दूसरों की अपेक्षा स्वयं को अधिक जलाता है। 'क्रोधश्चेदनलेन किम् ?' इस नीति वाक्य के अनुसार जिस व्यक्ति ने अपने मन में क्रोधाग्नि को सुलगा रखी है, उसे चिता से कोई प्रयोजन नहीं होता। वह बिना चिता के ही जल जाएगा। संक्षेप में, क्रोधाग्नि स्व-पर दाहक है। वह सर्वप्रथम अपने स्वामी को जलाता है, और बाद में दूसरों को। महोपाध्याय समयसुन्दर के शब्दों में क्रोध करंता तप जप कीधा, न पड़इ कांइ ठाम । आप तपे पर ने संतापे, क्रोध सँ केहो काम ॥ क्रोध का दमन तथा प्रगटन-दोनों घातक : अपेक्षा की उपेक्षा क्रोध का कारण है। इसीलिए महान् व्यक्ति दूसरों से अपेक्षा नहीं रखते। उनकी अपेक्षाएँ स्वयं से ही होती हैं। अतः उन्हें क्रोध का सामना नहीं करना पड़ता। किन्तु अधिकांश लोग दूसरों से अपेक्षा रखते हैं। जब उनकी अपेक्षा उपेक्षा में बदलती है, तो क्रोध का आगमन हो जाता है। ___क्रोध के उत्पन्न होने पर दो ही स्थिति होती है-या तो वह दमित हो जाता है या फिर प्रगट हो जाता है। दोनों क्षति पहुँचाने वाले हैं। मन में क्रोध का दबा रहना भी बुरा है और उसका प्रगट होना भी। क्रोध का दमन भावी विस्फोट का सूचक है, तो क्रोध का तत्काल प्रगटन संघर्ष की जड़ों को सुदृढ़ करता है। जिस व्यक्ति ने अपने क्रोध को दमित कर रखा है, वह १. अभिनव सोपान, पृ० १५८. २. रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड, दोहा ७० ३. समयसुन्दर कृति कुसुमाञ्जली, क्षमा छत्तीसी, ( ३२ ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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