Book Title: Kshama ke Swar
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jain Shwetambar Shree Sangh Colkatta

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Page 48
________________ [ ४३ ] 14 बुद्धिमान् पुरुषों को इसका परित्याग कर देना चाहिये । निशीथ भाष्यकार की दृष्टि में ज्यों-ज्यों क्रोध की वृद्धि होती है, त्यों-त्यों चरित्र की सतत हानि होती है । " देवद्ध गंणि के मतानुसार उग्रक्रोध, जो पर्वत की दरार के समान जीवन में कभी नहीं मिटता है, वह आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है ।" आचार्य शिवकोटि ने तो क्रोधी पुरुष को राक्षस की उपमा दी है। उन्होंने लिखा है कि कुद्ध मानव राक्षस के समान भयंकर हो जाते हैं । उनका यह भी कथन है कि क्रोध से मानव का हृदय रौद्र बन जाता है । वह मानव होने पर भी नरक के जीव जैसा आचरण करने लग जाता है । आचार्य वसुनन्दि ने क्रोध को सामाजिक परिवेश में घातक कहा है । उनका कथन है कि क्रोध में अन्धा हुआ व्यक्ति निकट में खड़ी माता, बहिन और बच्चों को भी मारने लग जाता है । इसी प्रकार आचार्य आनन्द ऋषि का कथन है कि क्रोध एक तूफान के समान आता है, जो विवेक की ज्योति को बुझा देता है । विवेक के अभाव में वह क्रोधी को तो जलाता ही हैं, साथ ही उसके कवचनों की चिनगारियाँ जिस किसी पर भी पड़ती हैं, वह भी जलने लगता है । निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि जैनधर्म में क्रोध को आन्तरिक एवं बाह्य जीवन में क्षतिकर बतलाया है । मनुष्य को न तो स्वयं पर क्रोध करना चाहिये और न ही दूसरों पर यही जैनधर्म का उपदेश हैं । क्रोध पर विजय प्राप्त करनी चाहिये । क्रोध को जीत लेने से क्षमा-भाव जागृत होता हैं । " हिन्दू धर्म में क्रोध की निन्दा : हिन्दू आचारदर्शन में क्रोध को बुरा समझते हुए उसे त्याज्य बताया गया है । अथर्ववेद में सूत्र है कि 'यदग्निरापो अदहत् अर्थात् क्रोध रूपी अग्नि जीवन रस को जला देती है । 8 पुराणानुसार क्रोध शरीरस्थ दुष्ट शत्रुओं में से एक है ।' वामन पुराण में क्रोध की विस्तृत चर्चा की गई है । उसमें लिखा है कि क्रोध अपरिमित मुखवाला प्राणनाशक शत्रु है । क्रोध बड़ी तेज धार का १. कामघटकथानकम्, ७८ २. निशीथ भाष्य, २७६० ३. स्थानाङ्ग, ४/२ ४. भगवती आराधना, १३६१ ५. वसुनन्दि श्रावकाचार, ६७. ६. आनन्द-प्रवचन, भाग १, पृष्ठ ५३. ७. उत्तराध्ययन, २६. ६७. ८. अथर्ववेद, १.२५.१ ९. उद्धृत - हिन्दी शब्दसागर, पृष्ठ १०६० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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