Book Title: Kshama ke Swar
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jain Shwetambar Shree Sangh Colkatta

View full book text
Previous | Next

Page 43
________________ [ ३८ ] उत्तमे तु क्षणं कोपो, मध्यमे घटिकाद्वयम् । अधमे स्यादहोरात्रं, चाण्डाले मरणान्तकः ।। अर्थात् क्षणभर का क्रोध उत्तम है । दो घड़ी का क्रोध मध्यम है। रात-दिन रहने वाला क्रोध अधम है। और मृत्युपर्यन्त क्रोध को मन में लिए रहना चाण्डालकर्म है। क्रोध : विवेक का विनाशक : मस्तिष्क रूपी दीपक विवेक रूपी प्रकाश से आलोकित होता है। विवेक से ही शुभाशुभ-विचार की योग्यता प्राप्त होती है। विवेकवान ही अच्छे-बुरे को पहचान सकता है। क्रोध इस विवेक का विनाशक है। क्रोध रूपी हवा का झोंका विवेक रूपी प्रकाश को समाप्त करता है। क्रोध में विवेक काम नहीं करता। क्रोधी व्यक्ति की विचार-शक्ति कुण्ठित हो जाती है। उसके विवेकरूपी नेत्र बन्द हो जाते हैं, केवल मुख-द्वार खुला रहता है जिससे अग्नि की लपटें निकलती रहती हैं। उसका चित्त अस्थिर हो जाता है। फलस्वरूप विवेक दूर भाग जाता है और उसका साथी अविवेक आकर मनुष्य को अकार्य में प्रवृत्त करता है। उसका क्रोध एक ऐसी वह्नि का रूप ग्रहण कर लेता है, जो चिरकाल से अभ्यस्त यम, नियम, तप आदि को क्षण भर में भस्म कर देती है। ऐसी दशा में क्रोधरूपी भकम्प को जो हमारे व्यक्तित्व को विचलित कर देता है शान्त करना दुष्कर है। कारण वह बहरा होता है। वह किसी की सुनता नहीं है। अपनी ही कहता है। क्रोध की प्रारम्भिक अवस्था में व्यक्ति उस पर नियन्त्रण रख सकता है। किन्तु अन्त में वह उसी के वशीभूत हो जाता है। यानि पहले नाविक नौका चलाता था और बाद में नौका नाविक को चलाती है। यह हास्यास्पद स्थिति है । यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने उचित ही कहा है कि क्र द्ध व्यक्ति उन व्यक्तियों की तरह है, जो अपने सिर के बल पर खड़े हैं । वे सभी बातें उलटी दिशा में सोचते हैं, देखते हैं। यूनानी दार्शनिक प्ल्युटार्क का भी यही कथन है कि क्रोध समझदारी को घर से बाहर निकाल देता है और विवेकरूपी द्वार की चटखनी लगा देता है। संस्कृत में एक प्रसिद्ध पद्य है रागं दृशोर्वपुषि कम्पमनेकरूपं, चित्ते विवेकरहितानि च चिन्तितानि पुंसाममार्गगमनं समदःखजातं, कोपं करोति सहसामदिरामदश्च Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54